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मनरेगा के खिलाफ सत्ताधारी वर्ग के नीतिगत हमले

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उत्पादन प्रक्रिया में श्रम शक्ति का संपूर्ण उपयोग किसी भी देश में विकास की अवधारणा का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। इसी का महत्वपूर्ण हिस्सा है — अल्प-रोज़गार और अधिशेष श्रम शक्ति का उत्पादन प्रक्रिया में इस्तेमाल। हमारे देश में लंबे कृषि संकट के कारण ग्रामीण क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसानों का एक हिस्सा कृषि छोड़ने पर मज़बूर हुआ है। कृषि संकट और मशीनीकरण के चलते खेत मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा भी बेरोजगार हो गया है।

देश की सरकारों द्वारा अपनाई गई पूंजीवादी आर्थिक नीतियों, विशेष तौर पर नवउदारवादी नीतियों के चलते, औद्योगिक विकास भी रोजगार पैदा करने में असफल ही रहा। नतीजतन, कृषि क्षेत्र से बेरोजगार हुए करोड़ों लोगों को उद्योग वैकल्पिक रोजगार नहीं दे सका। इस सब का कुल परिणाम हुआ है ग्रामीण भारत में बेरोजगारी की उच्च दर, जनता की क्रय शक्ति में कमी और सामान्य आर्थिक मंदी। ग्रामीण भारत में इसी स्थिति से निकलने के लिए व बेरोजगारों को रोजगार देने के लिए ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) 2005 लाया गया था।

हालांकि फरवरी 2006 में पहले चरण में मनरेगा के लागू होने के बाद से ही सरकार और कॉर्पोरेट का एक बड़ा हिस्सा इसके खिलाफ रहा है। इसको लागू करना भी संप्रग सरकार की मज़बूरी थी, क्योंकि उसे वामपंथी पार्टियों के समर्थन की जरुरत थी। लेकिन इसके लागू होने के बाद से ही मनरेगा को कमजोर करने के प्रयास होते रहे है। इसके खिलाफ नीतिगत हमलों के साथ सत्ताधारियों की तरफ से दुष्प्रचार भी व्यापक रहा है। लेकिन सरकारी आंकड़े और विभिन्न वैज्ञानिक-सामाजिक अध्ययन इस दुष्प्रचार के खिलाफ जाते हैं।

*मनरेगा का प्रभाव*

कई सरकारी और गैर-सरकारी अध्ययन सिद्ध कर चुके हैं कि तमाम दिक्कतों और फण्ड की कमी के बावजूद मनरेगा ने ग्रामीण भारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।लोगों की आमदनी में इज़ाफ़ा करके और खेत मज़दूरों की दिहाड़ी में कुछ स्थिरता लाकर मनरेगा ने अपना महत्व सिद्ध किया। सामाजिक और आर्थिक तौर पर वंचितों के लिए मनरेगा बिना भेदभाव के सहारा बना है।
मनरेगा में अनुसूचित जाति और जनजाति के मजदूरों की भागीदारी, उनकी जनसंख्या के सामान्य प्रतिशत से अधिक है। वहीं महिलाओं को भी गांव में ही काम के अवसर उपलब्ध करवाए हैं। वर्ष 2023-2024 में कुल कार्यदिवसों में लगभग 58.89% काम महिलाओं ने किया है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपने नवीनतम वर्किंग पेपर में उल्लेख किया गया है कि मनेरगा के कारण ग्रामीण भारत में महिला-पुरुष के बीच मज़दूरी का अंतर कम हुआ है और ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी नियमों के अनुपालन में वृद्धि हुई है।

दरअसल बेरोजगारी और आर्थिक मंदी के इस दौर में मनरेगा की ग्रामीण भारत में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। मनरेगा ग्रामीण परिवारों को सौ दिन का रोजगार देकर उनके लिए आजीविका की सुरक्षा ही सुनिश्चित नहीं करता, बल्कि नागरिकों की क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा करके बाजार में रौनक भी लाता है। मनरेगा के तहत किए जाने वाले ज्यादातर काम भूमि विकास, जल सरंक्षण, कृषि व इससे जुड़े हुए काम हैं, जिनका कृषि पर सकारात्मक असर पड़ता है। भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 इस बात की पुष्टि करता है कि मनरेगा का प्रति परिवार आय, कृषि उत्पादकता और उत्पादन संबंधी व्यय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

*मनरेगा संकट में, बजट में लगातार कटौती*

लेकिन इस सबके बावजूद मनरेगा पर सत्ताधारी वर्ग के हमले बढ़ते गए हैं। एनडीए सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मनरेगा विरोधी रुख किसी से छिपा नहीं है। सैद्धांतिक तौर पर मनरेगा को ख़त्म नहीं किया जा सकता है, परन्तु चौतरफा नीतिगत हमले करते हुए इसे केवल एक कल्याणकारी योजना में तबदील करने की कोशिश चल रही है। मनरेगा का नाम तो रहेगा, लेकिन मज़दूरों को काम का अधिकार नहीं मिलेगा।

मांग पर आधारित काम उपलब्ध करवाना मनरेगा का एक आधारभूत गुण है। इसके लिए मज़दूरों के पंजीकरण और काम की मांग के आधार पर केंद्र सरकार हर वर्ष बजट में आबंटन करती है। यह कोई साधारण कल्याणकारी योजना नहीं है, जिसमें लाभार्थियों की संख्या सीमित व लक्षित होगी। यह तो सार्वभौमिक कानून है। लेकिन इसके लिए पर्याप्त बजट पहली शर्त है। अगर बजट ही नहीं होगा, तो मांग होते हुये भी मज़दूरों को काम नहीं मिल पाएगा।

केंद्र में फिर से एनडीए सरकार बनने के बाद, संसद में पेश किया गया पहला बजट भी इस नीति को तेजी से आगे बढ़ाता है। वित्त मंत्री के पूरे भाषण में एक बार भी मनरेगा का जिक्र नहीं आता है। मनरेगा के लिए इस बजट में भी, अंतरिम बजट के अनुसार केवल 86000 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं। यह पिछले वित्तीय वर्ष 2023-24 में मनरेगा पर हुए असल खर्च 1,05,299 करोड़ से 19,298 करोड़ रुपये कम हैं। इस वर्ष के पहले चार महीनों में ही मनरेगा पर 42000 करोड़ रुपये  खर्च हो चुके हैं, और अभी आठ महीने बाकी बचे हुए हैं।
इससे साफ़ हो जाता है कि भाजपा सरकार ग्रामीण भारत की बदहाल स्थिति की आपराधिक तौर पर अनदेखा कर रही है। मनरेगा पर केंद्रीय बजट लगातार कम होता गया है। वित्तीय वर्ष 2011-12 में मनरेगा के लिए आंबटन देश के घरेलू उत्पाद का 0.35 प्रतिशत था, तो इस वर्ष कम होकर केवल 0.26 प्रतिशत रह गया है। इस वर्ष आठ फरवरी को संसद में पेश की गई ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर स्थायी समिति ने भी कहा है कि वित्तीय वर्ष के शुरुआत में कम बजट का मनरेगा के क्रियान्यवन के विभिन्न पहलुओं पर निरंतर बुरा (कैस्केड) प्रभाव पड़ता है।

*बजट का संकट और मजदूरी भुगतान में देरी*

पिछले कुछ वर्षो  के अनुभव बताते हैं कि मनरेगा का बजट छह से आठ महीनों में ही खर्च हो जाता है, जिससे मनरेगा में दिए जाने वाले काम के दिनों में कमी आती है। यह बहुत महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि मनरेगा प्रत्येक जॉब कार्ड धारक परिवार के लिए 100 दिन के रोजगार की गारंटी करता है, लेकिन असल में प्रत्येक वर्ष औसत काम के दिन 50 के आसपास ही रह जाते हैं। कुल जॉब कार्ड धारकों के एक बहुत ही छोटे हिस्से को ही 100 दिन का रोजगार मिल पाता है। वर्ष 2023-24 में कुल जॉब कार्ड धारकों के केवल 3.16 प्रतिशत परिवारों को ही 100 दिन का रोजगार मिला है।

इसके साथ ही जुड़ता है बहुत कम मज़दूरी और मज़दूरी मिलने में देरी का मामला। सरकार की प्राथमिकता में न होने से मनरेगा में मज़दूरी बहुत कम घोषित की जाती है। मनरेगा के मूल कानून में प्रावधान है कि मनरेगा में मिलने वाली मज़दूरी की दर राज्यों में खेत मज़दूरों के लिए घोषित मज़दूरी की दर से कम नहीं होगी। लेकिन हम पाते हैं कि मनरेगा के लिए घोषित दर सामान्यतया इससे कम ही होती है। कम मज़दूरी दर मनरेगा के घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।

कम बजट के कारण मज़दूरी के भुगतान में देरी होती है क्योंकि केंद्र सरकार समय पर राज्यों के लिए फण्ड रिलीज़ नहीं करती और कम फण्ड देती है। प्रत्येक वर्ष मनरेगा में मज़दूरी और सामग्री, दोनों के मद में समय पर बजट नहीं दिया जाता है। मनरेगा मजदूर आम तौर पर ग्रामीण भारत में दिहाड़ी कमाई करने वालों में सबसे वंचित तबकों से आते हैं। मजदूरी के भुगतान में देरी उनके जीवन को अनिश्चितताओं की ओर धकेल रही है। इससे मनरेगा कार्य में शामिल होने के लिए मजदूर हतोत्साहित भी होते हैं।

*मज़दूरों को हतोत्साहित करने वाले मनरेगा के नए प्रावधान*

इसके अलावा मनरेगा के क्रियान्वयन में कई तरह की जटिलताएं पैदा करके मज़दूरों को हतोत्साहित किया जाता है। पिछले एक दशक में मोदी सरकार ने तो कई तरह की एडवाइजरी जारी करके ऐसे प्रावधान लागू किये हैं, जिनकी खिलाफत आंतरिक बैठकों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और विभाग भी करता आया है।

मसलन जाति के आधार पर फंड का आबंटन। भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर एनएमएमएस के जरिये दिन में दो बार जियोटैग ऑनलाइन हाजरी, एबीपीएस के जरिये मज़दूरी का अनिवार्य भुगतान आदि ने तो मज़दूरों ही नहीं, बल्कि स्थानीय स्तर के अधिकारियों के सामने भी बड़ी चुनौतियां खड़ी की हैं।

इसके परिणामस्वरुप  मज़दूरों को काम नहीं मिल पा रहा है। ऑनलाइन हाज़िरी के अनुभव तो बताते हैं कि कार्यस्थल पर पहुंचने के बाद भी नेटवर्क न होने या ऑपरेटिंग सिस्टम के काम न करने के कारण मज़दूरों को खाली हाथ वापिस लौटना पड़ रहा है।

केंद्र सरकार पूरे हठ के साथ इन बदलावों को लागू करने के लिए राज्यों को मज़बूर कर रहा है। मनरेगा में निर्णय लेने की प्रक्रिया और इसके क्रियान्वयन का बड़े स्तर पर केंद्रीकरण हो गया है। निचले स्तर पर आंकड़े सुधारने और एडवाइजरी लागू करने में टारगेट पूरा करने का दबाब होता है।

पंजीकृत मज़दूरों और काम पाने वाले मज़दूरों की बीच की खाई भी सरकार की पोल खलती है।  इस सब समस्याओं के निदान के तौर पर मज़दूरों के जॉब-कार्ड ही रद्द कर दिए जाते है। संसद में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2022-2023 में 5,18,91,168 जॉब-कार्ड रद्द कर दिए गए थे।

लिब टेक इंडिया (जो कि शिक्षाविदों का एक संघ है) के डेटा के अनुसार पिछले दो वर्षो में मनरेगा की व्यवस्था में से 7.6 करोड़ जॉब-कार्ड डिलीट कर दिए गए हैं। जॉब-कार्ड रद्द करने का मतलब है, मज़दूरों को काम के अधिकार से ही वंचित कर देना।

*नए हमलों के लिए गढ़े जा रहें है नये आधार*

ऐसा लगता है कि एनडीए सरकार पूरी मुस्तैदी के साथ नवउदारवाद की नीतियों को ही लागू करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। इसका आभास आर्थिक सर्वेक्षण और बजट में साफ़ दिखता है। मनरेगा हमेशा से ही इन नीतियों के निशाने पर रहा है। ऐसा लगता है कि मनरेगा पर नए हमलों के लिए नए आधार गढ़े जा रहें हैं।  22 जुलाई को मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन के व्यक्तव्य को इसी समझ से देखा जा सकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मनरेगा के तहत काम की मांग ग्रामीण इलाकों में संकट का “वास्तविक संकेतक” नहीं थी, क्योंकि आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023-24 में जारी किए गए सभी मनरेगा फंड में तमिलनाडु का हिस्सा लगभग 15% था, जबकि तमिलनाडु में देश की गरीब आबादी 1% से भी कम है।

इसी तरह, केवल 0.1% गरीब आबादी वाले केरल ने मनरेगा के लिए आबंटित कुल धन का लगभग 4% उपयोग किया। दोनों ने मिलकर 51 करोड़ दिनों का रोजगार सृजित किया। इसके विपरीत, बिहार और उत्तर प्रदेश, जहां लगभग 45% (क्रमशः 20% और 25%) गरीब आबादी है, ने मनरेगा निधि का केवल 17% (क्रमशः 6% और 11%) हिस्सा लिया और 53 करोड़ मानव-दिवस रोजगार उत्पन्न किए।

भाजपा वैसे भी आंकड़ों की बाजीगरी के लिए जानी जाती है। आर्थिक सर्वेक्षण में इन आंकड़ों से यह सिद्ध करने की कोशिश है कि काम की मांग और गरीबी में कोई संबंध नहीं हैं। इसका मतलब मनरेगा की गरीबी उन्मूलन और गरीबों की मदद में भी कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि गरीब तो मनरेगा में काम की मांग ही नहीं कर रहे। यह कुटिलता और बेमानी है।

बड़ी चतुराई से बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकारों की मनरेगा को लागू करने में नाकामयाबी और लचर व्यवस्था का उपयोग किसी और ही मकसद को सिद्ध करने के लिए किया गया है। यह तो जगजाहिर है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में मनरेगा में भ्रष्टाचार व्याप्त है। ठेकेदारों और अधिकारियों का गठजोड़ है। काम मिलना तो दूर, मज़दूरों की काम मांगने की अर्जी तक नहीं ली जाती।
चलन तो यही है कि काम मांगा नहीं जायेगा। अगर कभी अधिकारियों और पंचायत की जरुरत होगी, तो काम दिया जायेगा और मज़दूरों को एहसानमंद होना पड़ेगा। इसके विपरीत केरल और तमिलनाडु में पंचायत स्तर पर मनरेगा बेहतर तरीके से लागू होता है और बेहतर तरीके से मनरेगा का उपयोग जनता को काम मुहैया करवाने के लिए होता है। आर्थिक सर्वेक्षण में इन राज्यों की तारीफ करने की बजाय मुख्य आर्थिक सलाहकार अपने वर्गीय आकाओं का हित साधने में लगे है।

पिछले दिनों अखबार मिंट में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, सरकार मनरेगा में काम के बदले अनाज देने की योजना पर सोच रही है। इस खबर के अनुसार उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले खाद्य विभाग ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें मनरेगा में मजदूरी के आंशिक भुगतान के लिए अतिरिक्त चावल देने पर सोचने के लिए कहा गया है। हालांकि इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है, लेकिन यह बताता है कि सरकारी मंत्रालय किस दिशा की तरफ सोच रहे है।

मनरेगा के लिए बजट में लगातार कटौती और इसको कमजोर करने की कोशिशें दरअसल हमारे देश की सरकारों की प्राथमिकता को दर्शाता है, जिसमें कॉर्पोरेट के मुनाफों को जनता के जीवन के ऊपर तरजीह दी जाती है। सत्ताधारी वर्ग की यह समझ है कि देश का आर्थिक विकास कॉर्पोरेट के जरिये ही होगा, इसलिए जनता की क्रय-शक्ति बढ़ाने के लिए सार्वजनिक निवेश से ज्यादा जरुरी है कॉर्पोरेट को रियायतें देना, जिससे उद्योग और व्यापर आगे बढ़ेगा। मूल रूप से यह वर्गों के बीच की प्राथमिकता है।

मनरेगा के लिए फण्ड देने का मतलब है, ग्रामीण सर्वहारा (खेत मज़दूर, ग्रामीण मज़दूर) और सीमांत किसानों को तरजीह देना। यह विकास की इस पुरानी बहस का भी हिस्सा है कि आर्थिक विकास से लोगों की क्रय शक्ति बढ़ानी होगी ; जबकि नवउदारवाद के दौर में उनकी प्राथमिकता है देशी और विदेशी कॉर्पोरेट के मुनाफे बढ़ाने के लिए देश के संसाधनों और धन का निवेश।

इस संघर्ष में लोकतंत्र एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जहां सत्ताधारी वर्ग को कई समझौते करने पड़ते है। मनरेगा उनमें से एक है। लेकिन अगर इसको बचाना है, इसे काम के अधिकार के रूप में जिन्दा रखना है, तो ग्रामीण गरीबों को इसके लिए संघर्ष करना होगा और सरकारों को इसके लिए पर्याप्त फंड देने के लिए मज़बूर करना होगा।
*(आलेख : विक्रम सिंह)*
*(लेखक अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के महासचिव हैं। संपर्क : 96540 14004)*

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