Home महाराष्ट्र संसद को ठप्प कौन कर रहा है?

संसद को ठप्प कौन कर रहा है?

27

क्या संसद का शीतकालीन सत्र उसी रास्ते जा रहा है, जिस रास्ते पिछले कई सत्र गए हैं। कुल तीन हफ्तों के सत्र में पहले हफ्ते संसद के लगातार ठप्प होने के बाद, दूसरे हफ्ते की भी शुरूआत उसके ठप्प रहने का सिलसिला जारी रहने से हो गयी है। संसद के इस तरह ठप्प होने में एक खास बात है, जिसकी संसद के ठप्प होने पर आम तौर पर सत्तापक्ष से लेकर मुख्यधारा के मीडिया तक द्वारा जतायी जाने वाली चिंताओं में, शायद ही कभी चर्चा की जाती है। यह खास बात यह है कि संसद के ठप्प होने से सरकारी काम-काज बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होता है, बिल्कुल नहीं रुकता है। इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है।

वक्फ संशोधन विधेयक को संसद के पिछले सत्र में भारी विरोध के बाद, संयुक्त संसदीय समिति को विचार के लिए भेजे जाने के बाद से, संयुक्त संसदीय समिति में दूर-दूर तक कोई सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी। इसके लिए सबसे ज्यादा भाजपा और उसके सहयोगी जिम्मेदार थे, जिनके आचरण से यह साफ हो गया था कि प्रस्ताव भले ही अभी कानून में संशोधन का ही हो, संघ-भाजपा की नीयत वक्फ बोर्ड को खत्म करने की ही है। इसे तब और भी साफ कर दिया गया, जब महाराष्ट्र के विधानसभाई चुनाव में जीत की शाम को भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में अपने संबोधन में खुद प्रधानमंत्री ने वक्फ बोर्ड को, ‘आंबेडकर के संविधान के खिलाफ’ करार दे दिया।

फिर भी जैसाकि मोदी-पूर्व के दौर में हुआ करता था, जब बहुपक्षीय विचार-छानबीन के मंच के रूप में संसदीय समितियों की महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी और संयुक्त संसदीय समितियों के काम को बहुत गंभीरता से लिया जाता था, के करीब नजर न आने को देखते हुए, उक्त संयुक्त संसदीय समिति को अपने काम के लिए और समय दिए जाने का सुझाव आया था। इसके पीछे सोच यह थी कि और विचार-विमर्श तथा अध्ययन के जरिए, मतभेदों को कम कर के, सर्वसम्मति के ज्यादा नजदीक पहुंचा जा सकेगा। लेकिन, प्रधानमंत्री के उक्त भाषण से सत्ताधारी भाजपा की दिशा साफ हो गयी और वक्फ संशोधन विधेयक को शीतकालीन सत्र की कार्यसूची में प्रमुखता से रख दिया गया।

इसके बाद भी, चूंकि इस मामले में भाजपा के लिए अपनी मर्जी चलाना आसान नहीं था और विपक्ष के एकजुट विरोध के अलावा इस मामले में उसके सामने जनता दल यूनाइटेड तथा तेलुगू देशम् जैसे अपने सहयोगी दलों को साधने की भी चुनौती थी, जो भाजपा की तरह सीधे-सीधे मुस्लिमविरोध की कतारों में खड़े नहीं होना चाहते हैं, उसे शीतकालीन सत्र में सरकारी कामकाज की प्राथमिकताओं में थोड़ा पीछे खिसकाना पड़ा। इसके बावजूद, भाजपा ने संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट पेश किए जाने के लिए, शीत सत्र के आखिर तक का विस्तार ही स्वीकार किया है। अंतत: उसे अपने मंसूबों में कामयाबी मिले या नहीं मिले, पर फिलहाल भाजपा इसकी कोशिश करने जा रही है कि संबंधित रिपोर्ट इसी सत्र के अंत तक संसद में पेश कर दी जाए, जिससे भाजपा इस मामले में अपना एजेंडा आगे बढ़ा सके। इस मुद्दे को जोर-शोर से आगे बढ़ाए जाने की एक वजह यह भी हो सकता है कि संघ-भाजपा के मोदी राज को इसका एहसास हो गया हो कि उत्तराखंड जैसे इक्का-दुक्का राज्यों में उसकी सरकारों के तथाकथित समान नागरिक कानून या संहिता को आगे बढ़ाने के बावजूद, देश के पैमाने पर ऐसा कानून बनाना इसके बावजूद आसान नहीं होगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी चतुराई से इसे समान नागरिक कानून की जगह, सेकुलर नागरिक कानून कहना शुरू कर दिया है। ऐसे में देश के पैमाने पर अपने मुस्लिमविरोधी एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए, वक्फ कानून उनके लिए एक उपयोगी साधन हो सकता है।

बहरहाल, हम संसद के ठप्प होने और किए जाने के मसले पर लौटें। आखिर, संसद को ठप्प कर कौन रहा है? इस सवाल के निश्चित उत्तर के लिए हम कानून के एक लोकप्रिय सिद्घांत या धारणा का सहारा ले सकते हैं। यह सिद्घांत यह कहता है कि अपराधी का पता लगाने का आसान तरीका है, इसका पता लगाना कि संबंधित अपराध से लाभ किसका होगा? संसद के ठप्प होने से किस का लाभ हो रहा है? इस सवाल का एक ही जवाब हो सकता है — इसमें सरकार का ही फायदा है? क्यों? क्योंकि सारे शोर-शराबे के बीच भी, सरकार न सिर्फ सामान्य सरकारी काम-काज पूरा कर लेती है, बल्कि उसने बिना चर्चा के ही विधेयकों पर संसद से मोहर लगवाने को, नया नॉर्मल ही बना दिया है। जब संसद में किसी वास्तविक बहस के बिना ही सरकार का काम हो रहा हो, तो बहस-मुबाहिसे के अर्थ में संसद चलवाने में सरकार की दिलचस्पी क्यों होगी?

यह कोई संयोग ही नहीं है कि नरेंद्र मोदी के राज में पिछली संसद ने बदनामी के कहे जा सकने वाले एक नहीं, कई-कई रिकार्ड बनाए थे। इनमें तीन रिकार्ड सबसे खास थे। सबसे ज्यादा, करीब डेढ़ सौ विपक्षी सांसदों को एक साथ संसद के दोनों सदनों से निलंबित किए जाने का रिकार्ड। लोकसभा के एक पूर्ण कार्यकाल में सबसे कम बैठकों का रिकार्ड। बिना किसी वास्तविक चर्चा के विधेयक पारित कराए जाने और विधेयकों पर चर्चा में औसतन सबसे कम समय लगाए जाने का रिकार्ड। वास्तव में यह संसदीय व्यवस्था के साथ सलूक की नरेंद्र मोदी की आम शैली ही है। गुजरात में अपने शासन के 13 साल में मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने आम तौर पर यह सुनिश्चित किया था कि विपक्ष को विधानसभा में चर्चा के जरिए सरकार को जवाबदेह बनाने का कोई मौका ही नहीं मिले और खासतौर पर विधानसभा की बैठकों की संख्या कम से कम रहे। उसी गुजरात मॉडल को अब संसद के स्तर पर लागू किया जा रहा है।

पूछा जा सकता है कि लेकिन, संसद को क्या विपक्ष ही ठप्प नहीं कर रहा है?ï क्या विपक्ष ही नहीं है जो दोनों सदनों के सभापतियों के मना करने के बावजूद, अडानी घोटाले—वास्तव में रिश्वतखोरी—से लेकर महंगाई, मणिपुर आदि तक, मुद्दों पर बहस कराने को लेकर अड़ा हुआ नहीं है? क्या विपक्ष ही, सभापति के आसन के आदेशों की अवहेलना कर, अपनी बात मनवाने के लिए शोर-शराबे का सहारा नहीं ले रहा है? फिर संसद के ठप्प होने के लिए सत्ता पक्ष कैसे जिम्मेदार है? हैरानी की बात नहीं है कि संसद के सत्र से ऐन पहले के अपने परंपरागत वक्तव्य में प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को गैर-जिम्मेदार साबित करने की कोशिश करते हुए, उस पर हमला ही बोल दिया था। यह सत्ता पक्ष के लिए और जाहिर है कि दोनों सदनों के आसनों के लिए भी, इसका इशारा था कि इस सत्र में भी विपक्ष नहीं सुनी जानी चाहिए।

संसदीय जनतंत्र में विपक्ष की आवाज, सिर्फ विपक्ष की आवाज नहीं होती है। जनतंत्र में विपक्ष की आवाज, जनता की आवाज होती है। और जनता की यही आवाज यह सुनिश्चित करती है कि चुनाव के जरिए सत्ता में पहुंचने वालों को, जनता के सामने जवाबदेह बनाया जाए। जनता की यही आवाज यह सुनिश्चित करती है कि सत्ता के लिए चुने जाने के बाद, सत्ता में बैठे लोग, जनता के प्रति अपने आचरण में तानाशाह नहीं बन जाएं, भले ही यह तानाशाही उनके निर्वाचन की अवधि तक ही हो। बेशक, एक निश्चित अवधि के लिए चुनाव के जरिए जनता यह सुनिश्चित करती है कि सत्ता में बैठने वाले अंतत: उसके प्रति जवाबदेह हों। लेकिन, जनतंत्र कोई निर्वाचन के कार्यकाल के लिए, तानाशाही का पट्टा देने की व्यवस्था नहीं है। जनतंत्र हर रोज शासन की जवाबदेही सुनिश्चित करने की व्यवस्था का नाम है। और विपक्ष, संसद के जरिए इसी जवाबदेही को सुनिश्चित करने का, जनता का हथियार है।

प्रकटत: विपक्ष, संसद की कार्रवाई को ठप्प करता लग सकता है, जिसका सत्ता पक्ष द्वारा और उसके पालतू मीडिया द्वारा बहुत शोर भी मचाया जाता है। लेकिन, वास्तव में संसद को नहीं चलने देने के लिए सत्तापक्ष ही जिम्मेदार है, जो जनता के लिए सबसे ज्यादा महत्व के मुद्दों पर बहस ही नहीं होने देने के जरिए, न सिर्फ विपक्ष को अपनी भूमिका अदा नहीं करने दे रहा है, बल्कि संसद को भी अपना असली काम नहीं करने दे रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि संसद का काम सिर्फ सरकारी काम-काज पर मोहर लगाना नहीं है बल्कि उसका असली काम तो सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना ही है। पाठकों को शायद अब भी याद होगा कि पिछली लोकसभा के आखिरी सत्रों में से एक विपक्ष के सिर्फ इसके संघर्ष की भेंट चढ़ गया था कि मणिपुर में महीनों से जारी भयानक हिंसा और इथनिक टकराव पर, सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोगों के वक्तव्य के आधार पर, संसद में चर्चा हो। संसद को और विपक्ष को भी, अपना काम नहीं करने देने का वर्तमान सत्तापक्ष का हठ और स्वार्थ ही है, जो संसद को ठप्प कर रहा है। इसके खिलाफ संघर्ष कर विपक्ष, जनतंत्र की रखवाली का ही बहुत ही जरूरी काम कर रहा है। इस संघर्ष में कोताही करना, विपक्ष का जनता और जनतंत्र के साथ विश्वासघात करना होगा।

✒️आलेख:-राजेंद्र शर्मा(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here