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Guarantee : Neither purchase, nor support price, nor distribution-गारंटी : न खरीद की, न समर्थन मूल्य की, न वितरण की

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इस बार फिर हरियाणा और पंजाब के किसान परेशान और हलाकान है। रबी फसलों के लिए केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी गई है, इस दावे के साथ कि घोषित मूल्य लागत का डेढ़ गुना से ज्यादा है। लेकिन इस सवाल पर वह मौन है कि यह समर्थन मूल्य सी-2 लागत पर आधारित है या ए-2+एफएल लागत पर। किसान जानते हैं कि मोदी सरकार उन्हें सी-2 लागत आधारित समर्थन मूल्य देने से इंकार कर रही है, जिसके लिए वह लगातार पिछले 4 वर्षों से आंदोलन कर रहा है। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार ने की है, वह लाभकारी तो है ही नहीं, बल्कि उससे तो अनाज को मंडी तक ले जाने की लागत भी नहीं निकल रही है।

सीजन की शुरूआत से ही खरीदी प्रक्रिया संकट में पड़ गई है। एफसीआई हांफने लगी है कि उसके पास अनाज रखने के लिए जगह ही नहीं है, तो खरीदकर उसे रखे कहां! और जगह क्यों नहीं है? इसलिए कि पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने राज्यों के लिए गोदामों से अनाज का उठाव नहीं किया और इसके बाद भी जो गोदाम खाली भी थे, उसे एफसीआई ने अडानी और अंबानी को किराए पर दे रखा है। केंद्र सरकार ने केंद्रीय भंडारण निगम को तो पहले ही खत्म कर दिया है, जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र में भंडारण सुविधाओं में बड़े पैमाने पर कमी आई है। वास्तव में देखा जाएं, तो आज अनाज के निजी खिलाड़ियों के पास भंडारण सुविधाएं अपेक्षाकृत ज्यादा है।

वास्तव में इस आरोप में दम है कि मोदी सरकार किसानों से अनाज की खरीद और अपने नागरिकों को राशन दुकानों के जरिए इसके वितरण, दोनों प्रक्रिया से धीरे-धीरे और अघोषित रूप से पीछा छुड़ाना चाहती है। बजट आबंटन से यह बहुत ही स्पष्ट है। पिछले दो सालों में ही उर्वरक सब्सिडी में 87,339 करोड़ रुपए और खाद्य सब्सिडी में 67,552 करोड़ रुपयों की कटौती कर दी गई है। वर्ष 2022-23 में खाद्य सब्सिडी में 2,72,802 करोड़ रुपए रखे गए थे और इस वर्ष 2024-25 के बजट में रखा गया है इससे भी कम 2,05,250 करोड़ रुपए। इसी प्रकार, उर्वरक सब्सिडी के मद में वर्ष 2022-23 के आबंटन 2,51,339 करोड़ रुपए को वर्ष 2024-25 में घटाकर 1,64,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इन मदों में बजट में जो राशि आबंटित की जाती है, उतनी राशि भी खर्च नहीं की जाती।

उर्वरक और खाद्य सब्सिडी में बजट आबंटन में कटौती के प्रभाव स्पष्ट है। उर्वरक सब्सिडी में कटौती होने से कृषि उत्पादन की लागत बढ़ती है, लेकिन इस बढ़ी हुई लागत की भरपाई न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से नहीं की जाती। नतीजन, खेती किसानी घाटे का सौदा बनती जा रही है, किसान कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं और अपने सम्मान की रक्षा के लिए आत्महत्या के लिए बाध्य हो रहे हैं। मोदी सरकार के एक दशक के राज में किसान आत्महत्याओं की संख्या बढ़कर डेढ़ गुनी होने का यह बड़ा कारण है।

खाद्य सब्सिडी में कटौती होने के कारण गरीब उपभोक्ता सस्ते अनाज से वंचित होते हैं, बाजार पर उनकी निर्भरता के कारण भरण-पोषण की कीमत बढ़ती है और अंततः वे कुपोषण का शिकार होते हैं। भारत में एक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में न्यूनतम 2200 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में न्यूनतम 2100 कैलोरी प्रतिदिन पोषण की जरूरत पड़ती है। लेकिन आज यह पोषण आहार ग्रामीण क्षेत्र के 80% लोगों को और शहरी क्षेत्र के दो-तिहाई लोगों को नहीं मिल रहा है। पोषण आहार में गिरावट के कारण आज देश में आधे बच्चे बौनेपन और कम वजन के और दो-तिहाई महिलाएं और बच्चे खून की कमी के शिकार है। यही कारण है कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 111वें स्थान पर है।

बढ़ते कृषि संकट और देश में बढ़ती भुखमरी से निपटने का एक ही रास्ता है कि मोदी सरकार विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के उन निर्देशों को मानने से इंकार कर दें, जिसके कारण खाद्य और उर्वरक सब्सिडी में कटौती कर रही है, किसानों का लाभकारी मूल्य पर अनाज खरीदने और राशन दुकानों के जरिए सस्ती दरों पर गरीब लोगों को देने से इंकार कर रही है। समग्रता में, उसे उस नव-उदारवादी और कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों से नाता तोड़ना होगा, जो हमारे देश के लोगों को केवल बाजार के भरोसे छोड़ना चाहती है और देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को खत्म करना चाहती है।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि हमारे देश में हजारों किस्म की फसलों का उत्पादन होता है, लेकिन केवल 23 फसलों (अनाज की 7, दलहन की 5, तिलहन की 7 और नकद फसल की 4) का ही न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है और सरकारी खरीद होती है। इस प्रकार, कुल जितना उत्पादन होता है, उसका 70% बाजार में आता है और इसके केवल 10% की ही समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीदी होती है। किसान अपनी 90% फसल को बिचौलियों को बेचने के लिए बाध्य है और अक्सर उसे घोषित समर्थन मूल्य का 50-70% तक ही भाव मिलता है। कम कीमत पर अपनी फसल बेचने के कारण किसानों को हर साल 15-20 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान होता है। किसानों का नुकसान यानी अनाज मगरमच्छों का फायदा।

किसानों को लाभकारी मूल्य पर अपनी फसल बेचने की सहूलियत देने के लिए कृषि उपज मंडियों का निर्माण किया गया था, जिसका उद्देश्य था कि घोषित समर्थन मूल्य से कम पर यहां किसानों के फसल की खरीदी नहीं होगी। लेकिन अब देश में ऐसी कोई भी मंडी नहीं है, जहां इस बात की गारंटी हो। अनाज व्यापारियों को मंडियों से ही खरीदने की बाध्यता खत्म कर दिए जाने के बाद अब ये मंडियां बीमार हो गई है। अडानी अब अनाज के एक बड़े कॉरपोरेट व्यापारी के रूप में उभरकर सामने आ गया है, जो औने-पौने भाव पर किसानों का अनाज खरीदकर एफसीआई से लिए गए किराए के गोदामों में या अपने साइलो में (जिसे उसने पंजाब राज्य के लुधियाना और अमृतसर जिले के मोगा में कैथूनांगल में बनवाया है।) भरकर रख रहा है।

वर्ष 2023 में मोदी सरकार ने 4.44 करोड़ टन गेहूं खरीदी का लक्ष्य रखा था, लेकिन खरीदा उसने केवल 2.6 करोड़ टन ही। इसी प्रकार, देश में चावल की घरेलू खपत 10 करोड़ टन से ज्यादा है, लेकिन खरीदा उसने 4.63 करोड़ टन ही। इस प्रकार, मोदी सरकार पंजाब और हरियाणा सहित देश के किसानों की गेहूं और धान की खरीदी में ढिलाई बरतकर अप्रत्यक्ष रूप से अडानी की मदद कर रही है।

खाद्यान्न की कम खरीदी और बजट में खाद्यान्न सब्सिडी में भारी कटौती का नतीजा सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर लोगों को भुगतना पड़ता है। अब मोदी सरकार की अघोषित नीति ही है गरीब लोगों को खाद्यान्न खरीदी के लिए बाजार में ढकेलने की। इसके लिए वह तरह-तरह के उपाय कर रही है। राशन प्रणाली को एपीएल और बीपीएल में बांटकर सार्वभौमिक वितरण प्रणाली को पहले ही खत्म कर दिया गया है। अब राशन दुकानों को पर्याप्त खाद्यान्न आबंटन नहीं किया जा रहा है, जिसके कारण जरूरतमंदों को समय पर अनाज नहीं मिल रहा है। अब धीरे धीरे राशन कार्डों को प्रत्यक्ष हस्तांतरण प्रणाली (डीबीटी) से जोड़ा जा रहा है। उपभोक्ताओं को राशन देने के बजाए कुछ धनराशि उनके बैंक खातों में डाली जा रही है, ताकि वे बाजार से अनाज खरीद सकें। लेकिन यह राशि इतनी पर्याप्त नहीं होती कि वे बाजार के उतार-चढ़ाव का सामना कर सकें। महाराष्ट्र में अभी तक 32 लाख राशन कार्डों को इस प्रणाली से जोड़ दिया गया है और अनुभव बताता है कि इन लोगों के बाजार में दाखिल होते ही अनाज की कीमतों में अतिरिक्त उछाल आया है, जिससे कुपोषण की स्थिति और गंभीर हुई है। कर्नाटक में भयंकर सूखा पड़ा, लेकिन राज्य सरकार द्वारा चावल उपलब्ध कराने की मांग को मोदी सरकार द्वारा पूरा नहीं किया गया, जबकि गोदामों में पड़ा अनाज सड़ता रहा। यह अमानवीयता की नीति है, जो मनुष्य जीवन पर कॉर्पोरेट मुनाफे को प्राथमिकता देती है।

इस संदर्भ में राशन दुकानों को पुनः शुरू करने की मांग पर पांडिचेरी की आम जनता का माकपा के नेतृत्व में सफल संघर्ष उल्लेखनीय है। पांडिचेरी 16 लाख की आबादी वाला केंद्र शासित प्रदेश है, जिसकी आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है। यहां वर्ष 2016 से राशन कार्डधारियों को प्रत्यक्ष हस्तांतरण योजना से जोड़कर सभी 515 राशन दुकानों को बंद कर दिया गया था। इसके खिलाफ माकपा के नेतृत्व में श्रृंखलाबद्ध तरीके से 8 सालों तक लगातार जन अभियान और जन संघर्ष आयोजित किए गए। इसका राजनैतिक परिणाम यह हुआ कि हाल के लोकसभा चुनाव में 30 में से 28 विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए प्रत्याशी को हार का मुंह देखना पड़ा। इस हार से पैदा राजनैतिक दबाव के बाद यहां सभी 515 राशन दुकानों को खोलने की घोषणा की गई है।

देश का किसान आंदोलन और वामपंथ मोदी सरकार की इस विनाशकारी नीति के खिलाफ दृढ़ता से संघर्ष कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में संयुक्त किसान मोर्चा और किसान सभा की यह मांग महत्वपूर्ण है कि किसानों की सभी फसलों की सी-2+50% समर्थन मूल्य पर खरीदी की कानूनी गारंटी सरकार दें और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाया जाय। यही कदम किसानों के जीवन को बेहतर बना सकता है और आम जनता के पोषण स्तर को ऊंचा उठा सकता है। ‘देशभक्ति’ का तकाजा है कि आम जनता के जीवन को बेहतर बनाने के लिए और इसे नकारने वाली ‘राष्ट्र विरोधी’ सरकार के खिलाफ संघर्ष तेज किया जाएं।
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*Guarantee : Neither purchase, nor support price, nor distribution*

This time again the farmers of Haryana and Punjab are worried and distressed. The central government has announced the minimum support price for Rabi crops, with the claim that the declared price is more than one and a half times the cost. But it is silent on the question whether this support price is based on C-2 cost or A-2+FL cost. The farmers know that the Modi government is refusing to give them the C-2 cost based support price, for which they have been continuously agitating for the last 4 years. The minimum support price announced by the government is not only not profitable, but it is not even covering the cost of taking the grain to the market.

The procurement process has been in trouble since the beginning of the season. FCI is panting that it does not have space to store the grain, so where will it store after purchasing it! And why is there no space? Because last year the central government did not lift grain from the godowns for the states and even after this, the godowns that were empty were rented out by FCI to Adani and Ambani. The central government has already abolished the Central Warehousing Corporation, due to which there has been a massive reduction in storage facilities in the public sector. In fact, today private grain players have relatively more storage facilities.

There is indeed merit in the allegation that the Modi government wants to gradually and unofficially get rid of both the process of procurement of grains from farmers and its distribution to its citizens through ration shops. This is very clear from the budget allocation. In the last two years alone, fertilizer subsidy has been cut by Rs. 87,339 crore and food subsidy by Rs. 67,552 crore. In the year 2022-23, food subsidy was kept at Rs 2,72,802 crore and in the budget for the year 2024-25, it has been kept even less, Rs 2,05,250 crore. Similarly, the allocation for fertilizer subsidy for the year 2022-23 of Rs 2,51,339 crore has been reduced to Rs 1,64,000 crore in the year 2024-25. The amount allocated in the budget for these items is not even spent.

The impact of reduction in budget allocation for fertilizer and food subsidy is evident. Reduction in fertilizer subsidy increases the cost of agricultural production, but this increased cost is not compensated by the increase in minimum support price. As a result, farming is becoming a loss-making deal, farmers are getting trapped in the web of debt and are being forced to commit suicide to protect their honour. This is a major reason for the number of farmer suicides increasing by one and a half times in the one decade rule of Modi government.

Due to reduction in food subsidy, poor consumers are deprived of cheap food grains, their dependence on the market increases the cost of subsistence and ultimately they become victims of malnutrition. In India, a person needs a minimum of 2200 calories in rural areas and a minimum of 2100 calories in urban areas to stay healthy. But today this nutrition diet is not available to 80% of the people in rural areas and two-thirds of the people in urban areas. Due to the decline in nutrition diet, today half the children in the country are dwarf and underweight and two-thirds of women and children are victims of anemia. This is the reason why India is ranked 111th in the Global Hunger Index.

The only way to deal with the growing agrarian crisis and increasing hunger in the country is for the Modi government to refuse to follow the instructions of the World Bank and the World Trade Organization, due to which it is cutting food and fertilizer subsidies, refusing to buy grain from farmers at a profitable price and giving it to the poor people at cheap rates through ration shops. Overall, it will have to break away from those neo-liberal and pro-corporate policies that want to leave the people of our country at the mercy of the market and want to end the food grain self-sufficiency of the country.

It is worth noting here that thousands of varieties of crops are produced in our country, but only 23 crops (7 cereals, 5 pulses, 7 oilseeds and 4 cash crops) are declared as MSPs and are procured by the government. Thus, 70% of the total production comes to the market and only 10% of it is procured by the government at the MSP. The farmer is forced to sell 90% of his crop to middlemen and often gets only 50-70% of the declared MSP. Due to selling their crop at low prices, farmers suffer a loss of 15-20 lakh crore rupees every year. Loss of farmers means profit of grain crocodiles.

Agricultural produce markets were created to facilitate farmers to sell their crops at a profitable price, with the objective that the farmers’ crops would not be purchased here at less than the declared support price. But now there is no such market in the country where this is guaranteed. After the compulsion of grain traders to buy only from the mandis was abolished, these mandis have now become sick. Adani has now emerged as a big corporate trader of grain, who is buying the grain of farmers at throwaway prices and storing it in godowns rented from FCI or in his silos (which he has built in Ludhiana district and Amritsar district in Kaithunangal of Moga of Punjab state).

In the year 2023, the Modi government had set a target of purchasing 4.44 crore tons of wheat, but it purchased only 2.6 crore tons. Similarly, the domestic consumption of rice in the country is more than 10 crore tons, but it purchased only 4.63 crore tons. Thus, the Modi government is indirectly helping Adani by being lax in purchasing wheat and paddy from the farmers of the country including Punjab and Haryana.

The people dependent on the public distribution system have to bear the brunt of low food grain procurement and a huge cut in the food grain subsidy in the budget. Now the undeclared policy of the Modi government is to push the poor people to the market for food grain procurement. For this, it is taking various measures. The universal distribution system has already been abolished by dividing the ration system into APL and BPL. Now ration shops are not being allocated enough food grains, due to which the needy are not getting food grains on time. Now gradually ration cards are being linked to the direct transfer system (DBT). Instead of giving ration to the consumers, some amount is being deposited in their bank accounts so that they can buy food grains from the market. But this amount is not sufficient so that they can face the fluctuations of the market. So far 32 lakh ration cards have been linked to this system in Maharashtra and experience shows that as soon as these people enter the market, the prices of food grains have increased further, which has worsened the situation of malnutrition. Karnataka faced a severe drought, but the Modi government did not meet the state government’s demand for rice, while the grain lying in the godowns continued to rot. This is an inhuman policy that prioritizes corporate profits over human life.

In this context, the successful struggle of the common people of Pondicherry under the leadership of CPI(M) on the demand of reopening of ration shops is noteworthy. Pondicherry is a union territory with a population of 16 lakh, half of whose population lives below the poverty line. Here, all 515 ration shops were closed since 2016 by linking the ration card holders with the direct transfer scheme. Against this, public campaigns and public struggles were organized continuously for 8 years under the leadership of CPI(M). The political result of this was that in the recent Lok Sabha elections, the NDA candidate had to face defeat in 28 out of 30 assembly constituencies. After the political pressure created by this defeat, it has been announced to open all 515 ration shops here.

The country’s farmers’ movement and the left are fighting strongly against this destructive policy of the Modi government. In this context, the demand of the Sanyukt Kisan Morcha and Kisan Sabha is important that the government should give a legal guarantee of purchasing all the crops of the farmers at C-2+50% support price and the public distribution system should be made universal. Only this step can improve the lives of farmers and raise the nutritional level of the general public. ‘Patriotism’ demands that the struggle should be intensified to improve the lives of the common people and against the ‘anti-national’ government that denies it.


*(आलेख : संजय पराते)*
*(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क :
94242-31650)*

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