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महाराष्ट्र : मोदी का खाली तरकश

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महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के बीचों-बीच, भाजपा के नेतृत्व वाली महायुति की सबसे बड़ी दरार खुलकर सामने आ गयी है। एनसीपी के अजित पवार गुट ने, गठजोड़ की अपनी सबसे बड़ी सहयोगी, भाजपा के शीर्ष स्टॉर प्रचारक, योगी आदित्यनाथ के इस राज्य में चुनाव प्रचार में ‘कटेंगे तो बटेंगे’ जैसे सांप्रदायिक नारों का इस्तेमाल करने और सांप्रदायिक विभाजन करने वाली बोली बोलने पर, सार्वजनिक तौर पर आपत्ति जताई है। उन्होंने एक से ज्यादा मौकों पर कहा है कि “बाहर से आकर लोग यह सब कहकर चले जाते हैं, महाराष्ट्र के लोग यह सब पसंद नहीं करते हैं”, “महाराष्ट्र में यह सब काम नहीं करता है”। और यह भी कि “महाराष्ट्र के लोग शिवाजी, साहूजी महाराज और अंबेडकर की परंपरा पर चलने वाले हैं, जो किसी से भेदभाव नहीं करना सिखाती है”, आदि। यह दिलचस्प है कि खुद भाजपा के किसी प्रमुख नेता ने तो इस मुद्दे पर अजित पवार को जवाब देने की जरूरत नहीं समझी है, लेकिन शिव सेना के शिंदे गुट में नये-नये प्रवक्ता बने, संजय निरुपम ने जरूर उन्हें यह समझाने की कोशिश की है कि योगी ने जो कहा, सही था और समय के साथ अजित पवार की भी समझ में आ जाएगा।

याद रहे कि इससे पहले भी नवाब मलिक को एनसीपी का टिकट दिए जाने पर, भाजपा के साथ अजित गुट की खींचतान सामने आई थी। मलिक का नाम भाजपा के नेतागण तब से बड़े जोर-शोर से दाऊद इब्राहिम से जोड़ते आए थे, जब उद्घव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार में मलिक मंत्री थे और बाद में मलिक को कई आरोपों में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जेल में बंद भी रखा गया था। दिलचस्प है कि मलिक की बेटी को भी इस चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन की तरफ से टिकट मिला है, लेकिन उनके प्रत्याशी बनाए जाने पर भाजपा ने कोई विरोध नहीं जताया है, बल्कि महायुति के हिस्से के तौर पर उनके लिए चुनाव प्रचार करने का वादा भी किया है। लेकिन, नवाब मलिक के मामले में भाजपा ने, उनके पक्ष में चुनाव प्रचार न करने का ऐलान किया है। फिर भी इसे भाजपा के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठजोड़ के अंदर थोड़ी-बहुत खींचतान का ही मामला कहा जाएगा। लेकिन, आदित्यनाथ के सांप्रदायिक बोलों पर अजित पवार की एनसीपी के सार्वजनिक रूप से विरोध जताने के, कहीं गहरे और गंभीर निहितार्थ हैं।

बेशक, इन गंभीर निहितार्थों का अर्थ यह कतई नहीं है कि इन मतभेदों के चलते सत्ताधारी गठजोड़ में कोई ऊपर से दिखाई देने वाली दरार पड़ जाने वाली है, जिसका 20 नवंबर को होने वाले चुनाव पर कोई गंभीर असर होने जा रहा हो। ऐसा कुछ भी होने वाला नहीं है। इसका कुछ अंदाजा तो इसी तथ्य से लग जाता है कि भाजपा इसे कोई बड़ा मुद्दा बनाने से बचने की ही कोशिश करती नजर आ रही है। एक प्रकार से अजित पवार ही हैं, जो इसे मुद्दा बना रहे हैं, जबकि भाजपा इस विवाद से बचती ही नजर आती है। इसकी वजह यह है कि भाजपा अच्छी तरह से जानती है कि वह सत्ताधारी गठजोड़ में किसी तरह की टूट की इजाजत नहीं दे सकती है। उसे चुनाव में पूरा गठजोड़ एकजुट चाहिए ही, वर्ना पहले ही मुश्किल नजर आ रहे चुनाव में, सत्ता उसके हाथ से फिसल जाएगी। इसलिए, हैरानी की बात नहीं होगी कि भाजपा अपनी ओर से इस मामले में अजित पवार की चिंताओं को कुछ रियायत भी देने के लिए तैयार हो जाए। मिसाल के तौर पर अजित पवार ने योगी के बोलों पर अपनी आपत्ति, नरेंद्र मोदी की महाराष्ट्र की चुनावी रैलियों की पूर्व-संध्या में दर्ज कराई थी। इसलिए, यह देखना दिलचस्प होगा कि खुद प्रधानमंत्री, विभाजनकारी बोलों से कितना परहेज करते हैं या अजित पवार की आलोचनाओं को पूरी तरह से अनदेखा ही कर देते हैं। वैसे, मोदी जी महाराष्ट्र में अपनी पहले की सभाओं में और हाल ही में झारखंड की अपनी चुनाव रैलियों में, योगी के नारे को मामूली रंग-रोगन के साथ बाकायदा अपना भी चुके थे — एक रहेंगे, तो सेफ रहेंगे! हो सकता है कि ‘कांख भी ढकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे’ की ऐसी ही चतुराई प्रधानमंत्री महाराष्ट्र के अपने चुनावी दौरे में भी दिखाएं।

कहने की जरूरत नहीं है कि अजित पवार भी कोई इस मुद्दे पर सत्ताधारी गठजोड़ से नाता तोड़ने के लिए उत्सुक नहीं हैं। इसके विपरीत, वह सत्ताधारी गठजोड़ में बने रहने के लिए उत्सुक ही नजर आते हैं। हां! संघ-भाजपा की अल्पसंख्यक-विरोधी और खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यक-विरोधी छवि से, वह खुद को अलग जरूर दिखाना चाहते हैं। याद रहे कि अजित पवार की एनसीपी की सत्ताधारी गठजोड़ में मौजूदगी शुरू से ही एक असहज सी मौजूदगी रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि एनसीपी के शीर्ष नेताओं में से होने के चलते, अजित पवार हमेशा से ही संघ-भाजपा के निशाने पर रहे थे और कांग्रेस-एनसीपी सरकार के समय में शक्तिशाली मंत्री रहते हुए उन पर भाजपा ने, भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप भी लगाए थे। यहां तक कि अजित पवार गुट के सत्ताधारी गठजोड़ में आकर मिलने से चंद रोज पहले तक, खुद प्रधानमंत्री मोदी उन पर 75 हजार करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले के आरोप लगा रहे थे। प्रतिद्वंद्विता के इस लंबे इतिहास के चलते, अजित पवार का सत्ताधारी गठजोड़ में लिया जाना, आरएसएस को गवारा नहीं हुआ था।

लोकसभा चुनाव के बाद, जब महाराष्ट्र में चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले गठजोड़ की बुरी दुर्गति हुई, आरएसएस ने और भाजपा के भी एक हिस्से ने सार्वजनिक तौर, हार का ठीकरा अजित पवार गुट को सत्ताधारी गठजोड़ में शामिल किए जाने के सिर पर ही फोड़ने की कोशिश की थी। आरएसएस के अखबारों ने बाकायदा इसे भाजपा की हार का प्रमुख कारण ही बताया था। कम से कम इसके बाद से अजित पवार को इसमें कोई भ्रम नहीं रह गया होगा कि गठजोड़ में उनकी हैसियत, भाजपा की मजबूरी की ही है। जाहिर है कि भाजपा की मजबूरी का मतलब, चुनाव की मजबूरी ही है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मुस्लिम-विरोधी छवि की यह चिंता सत्ताधारी गठजोड़ के तीसरे घटक, शिंदे के नेतृत्व वाली शिव सेना की भी होगी, हालांकि वह इसे लेकर उतनी मुखर नजर नहीं आती है।

लेकिन, इस सारी खींच-तान का अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि भाजपा अपने मुस्लिमविरोधी चेहरे के साथ किसी तरह से समझौता करने जा रही है, उसमें कोई नरमी आने देने वाली है। इसके विपरीत, उसकी रणनीति यही लगती है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ताप से, अपने मूल सांप्रदायिक समर्थन आधार को ज्यादा से ज्यादा सक्रिय रखा जाए। याद रहे कि लोकसभा चुनाव के समय संघ परिवार के कुछ हिस्सों के उदासीन हो जाने की शिकायतें भी सुनने में आई थीं। बहरहाल, हिंदू वोट का अधिकतम ध्रुवीकरण की कोशिश करते हुए, भाजपा यह भी सुनिश्चित करने के लिए चिंतित है कि कहीं अल्पसंख्यकों का वोट एकमुश्त विपक्ष के पाले में नहीं चला जाए। इस वोट को बांटने का उसकी नजरों में सबसे कारगर उपाय तो यही हो सकता है कि सत्ताधारी खेमे से ही कोई पार्टी इस वोट में सेंध लगाने की स्थिति में हो। संघ-भाजपा को चूंकि खुद इस जरूरत का एहसास है, बल्कि यह उनकी अपनी जरूरत है, इसलिए वे अपनी सहयोगी पार्टियों को इस लिहाज से थोड़ी-बहुत छूट देने के लिए तैयार होंगे।

लेकिन, यह एक ओर संघ-भाजपा और दूसरी ओर अन्य सभी के बीच की बुनियादी विभाजक रेखा को रौशन कर देता है। मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि विधानसभाई चुनाव के बाद, भाजपा के ये अप्राकृतिक सहयोगी कहां तक उसके साथ बने रह पाएंगे। मुद्दा यह भी है कि विधानसभाई चुनाव में ही महाराष्ट्र की जनता, इस विभाजन के मद्देनजर क्या और कैसा फैसला करने जा रही है? इस लिहाज से इस चुनाव में, मई के आम चुनाव के नतीजों से बहुत भिन्न नतीजे आने का कोई वस्तुगत कारण नहीं बनता है। और आम चुनाव के नतीजे दोहराए जाने का अर्थ होगा, भाजपा और उसके सहयोगियों की हार। इसी निश्चित हार के सामने भाजपा, अपने सांप्रदायिक तरकश का कोई भी तीर उठाकर नहीं रखना चाहती है।

योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र के अपने चुनावी दौरे में ठीक यही करने का प्रयास किया था। उन्होंने सिर्फ ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा ही नहीं लगाया था, बल्कि अपने राज में हिंदुओं का बोलबाला कायम किए जाने और मुलसमानों के दबाए जाने का बखान करते हुए, इसका भी इशारा किया था कि अयोध्या के बाद, अब मथुरा और काशी की बारी है। हैरानी की बात नहीं होगी कि प्रधानमंत्री, थोड़े हेर-फेर के साथ उनके सुर में ही अपना सुर मिलाते नजर आएं। ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ का नारा, प्रधानमंत्री का योगी के सुर में सुर मिलाना ही तो है। मगर वे अपना सांप्रदायिक सुर जितना ज्यादा तीखा करते जाएंगे, उतना ही ज्यादा अपने ‘धर्मनिरपेक्ष’ सहयोगियों की धर्मनिरपेक्षता को लोगों की नजरों में संदिग्ध और कमजोर बनाते जाएंगे। संघ-भाजपा के दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री मोदी के तरकश में भी अब कोई नये तीर नहीं बचे हैं। लिहाजा वह लोकसभा चुनाव के समय का वही पिटा हुआ राग अलाप रहे हैं कि विपक्षी, ओबीसी विरोधी हैं, दलित विरोधी हैं और रोटी, बेटी, जमीन सब छीनकर मुसलमानों को दे देंगे, आदि। योगी के नारे का उल्टा कर उसे दोहराने की मजबूरी, इसी दिवालियापन को दिखाती है।

✒️आलेख :-राजेंद्र शर्मा(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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