आखिरकार, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की ‘हिंदू जागरण यात्रा’ ने कम से कम बिहार के शासन को जागने पर मजबूर दिया है। किशनगंज में मंत्री महोदय के खिलाफ सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने से संबंधित धाराओं में मुकदमा दर्ज हुआ है। अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस मुकदमे ने बिहार की नीतीश कुमार सरकार और भाजपा की गिरिराज लॉबी के बीच पहले ही असहज रिश्तों में तनाव और बढ़ा दिया होगा। वैसे यह मोदीशाही में सांप्रदायिक नारों और आह्वानों को मुख्यधारा में स्थापित किए जाने का ही संकेतक है कि मीडिया के लिए खबर गिरिराज सिंह की यात्रा के संबंध में किशनगंज में मुकदमा दर्ज कराए जाने में ही है, न कि एक केंद्रीय मंत्री के ऐसी खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक यात्रा पर निकलने में, जिसके चलते अनिच्छुक न्याय प्रशासन को भी आखिरकार मुकदमा दर्ज करना पड़ा है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह मामला भी प्रशासन द्वारा कोई स्वत: संज्ञान लेकर दर्ज नहीं कराया गया है। यह मुकदमा एमएआईएम द्वारा अदालत में शिकायत दिए जाने पर दर्ज हुआ है।
याद दिलाते चलें कि केंद्रीय मंत्री की इस यात्रा में, जो सचेत रूप से बिहार के सीमांचल माने जाने वाले चार अपेक्षाकृत अधिक मुस्लिम आबादी वाले इलाकों से निकाली गई, उनके दो आह्वान खासतौर पर सुर्खियों में रहे हैं। एक तो उनका हिंसा के लिए कथित हिंदू एकता का सांप्रदायिक आह्वान — अगर मुसलमान किसी को एक थप्पड़ मारे, तो सब हिंदू मिलकर उसको सौ थप्पड़ मारो। दूसरे, हिंदुओं से हथियार रखने का आह्वान — अब घर में भाला, तलवार, त्रिशूल, छुरा रखना शुरू करें। हैरानी की बात नहीं है कि इन व्यावहारिक आह्वानों के साथ, उग्र हिंदुत्व का प्रदर्शन करने के लिए बराबर चर्चा में रहने वाले मंत्री महोदय ने, उग्र हिंदुत्व के और बड़े आइकॉन, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ का ताजातरीन नारा दुहराया, जो आम चुनाव में आम तौर पर देश भर में और खासतौर पर उत्तरप्रदेश में, भाजपा को तगड़ा झटका लगने की पृष्ठभूमि में दिया जा रहा है — बंटोगे तो कटोगे!
यह दूसरी बात है कि इस नारे की शुरूआत बंगलादेश की हाल की बड़ी राजनीतिक उठा-पटक के संदर्भ में, वहां हिंदू अल्पसंख्यकों, मंदिरों आदि पर हमलों में तेजी के संदर्भ में हुई थी। लेकिन, जल्द ही संघ परिवार ने इसे भारतीय संदर्भ में अपनी इस शिकायत से जोड़ दिया कि उनके विरोधी इंडिया गठबंधन को तो मुसलमानों ने एकमुश्त वोट दिया था, लेकिन हिंदू वोट बंट गया और इसी का नतीजा यह हुआ कि खुद को हिंदू वोट का स्वाभाविक दावेदार मानने वाली भाजपा के मंसूबे अधूरे रह गए। और तो और, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी विशेष रूप से महाराष्ट्रकी अपनी सभाओं में, अपने ही शब्दों में इस शिकायत को दोहराया है।
महाराष्ट्र के आने वाले विधानसभाई चुनाव के लिए हिंदुओं की गोलबंदी की अपील करते हुए उन्होंने कहा कि उनका वोट बैंक तो एकमुश्त वोट कर देगा, पर आपका वोट बंट गया तो, उनके यहां जश्न हो जाएगा। अगर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की यह बोली अब आगे महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव सुनाई नहीं दे, तो ही अचरज की बात होगी। वास्तव में महाराष्ट्र की ही तरह, झारखंड में भी चुनाव की तरीखों की घोषणा से पहले से ही, सांप्रदायिक गोलबंदी की ये पुकारें खुलेआम शुरू हो गई थीं। झारखंड में इस सिलसिले में खासतौर पर उसके बंगाल से लगती हुई सीमाओं वाले जिलों में बसे मुसलमानों को बंग्लादेशी घुसपैठिया बताकर निशाना बनाया जा रहा था। असम के भाजपायी मुख्यमंत्री, हिमंत बिश्वशर्मा के नेतृत्व में, असम की ही तरह झारखंड में भी अवैध घुसपैठ से इस इलाके के आदिवासी चरित्र तथा पहचान के खतरे में होने का नैरेटिव गढ़ा जा रहा था।
वास्तव में असम के मुख्यमंत्री ने तो भाजपा के सत्ता में आने पर, झारखंड में भी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) कराने का वादा भी करना शुरू कर दिया था। यह दूसरी बात है कि उन्होंने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि उनके असम में, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर, हजारों करोड़ रुपए खर्च कर के जो एनआरसी अपडेटिंग कराई गई थी, उसका आखिर में क्या हुआ? उस एनआरसी को अब वह भाजपा सरकार भी स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं है, जो एनआरसी को सभी समस्याओं का रामबाण इलाज बता रही थी। सभी जानते हैं कि असम में एनआरसी के नतीजे क्योंकि संघ-भाजपा के नैरेटिव के हिसाब से नहीं आये थे और वास्तव में इस एनआरसी में जिन लोगों की भारतीय नागरिकता संदिग्ध पाई गई थी, उनमें बहुमत चूंकि हिंदुओं का था, ये सूचियां सामने आते ही संघ-भाजपा ने पांव पीछे खींचने शुरू कर दिये थे और इस एनआरसी को अस्वीकार करना शुरू कर दिया था।
बहरहाल, अब जबकि सीधे आरएसएस के उप-प्रमुख होजबोले ने ‘बटेंगे तो कटेंगे’ के नारे पर यह कहकर मोहर लगा दी है कि आरएसएस का तो हमेशा से ही यह विचार रहा है और वह हिंदुओं को एकजुट करने में लगा रहा है, इस नारे का संघ परिवार द्वारा आगे व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया जाना तय है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने, इस दशहरे के अपने विशेष संबोधन में, बंगलादेश की घटनाओं के संदर्भ से, हिंदुओं के एकजुट तथा संगठित होने की जरूरत पर विशेष जोर तो दिया ही था, जनता के विभिन्न तबकों को एकजुट तथा संगठित करने वाली ताकतों को ही बांटने वाली ताकतें बताकर, इस एकता के लिए उनसे खतरा बताते हुए, खासतौर सचेत किया था। इस क्रम में भागवत ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि संघ और उसका परिवार, उत्पीड़ित-वंचितों को उनके अधिकारों के आधार पर संगठित करने के प्रयासों को, इन तबकों के अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने तथा संघर्ष करने को, हिंदू समाज को बांटने की कोशिशों के रूप में ही देखता है। ‘बटेंगे तो कटेंगे’ के नारे में, ‘बटेंगे’ से कम न ज्यादा, ठीक यही आशय है।
संघ-भाजपा के (हिंदू) ‘एकता’ के नारे और उसके लिए ‘बंटने’ के खतरे का बुनियादी खोट, यही है कि उसे हिंदुओं की एकता तो चाहिए और यह एकता अपने संगठन के पीछे चाहिए, लेकिन हिंदुओं को वास्तव में जो चीजें बांटती हैं, उनका निराकरण करने के लिए उसे कुछ भी करना मंजूर नहीं है, बल्कि वह तो कुछ भी करने के खिलाफ है। वे सामाजिक रूप से एक यथास्थिति का ही प्रतिनिधित्व करने वाली ताकत हैं। भारतीय संदर्भ में वास्तव में बांटने वाली सबसे बड़ी चीज तो जाति/ वर्ण व्यवस्था ही है, जो ऊपर की जाति द्वारा नीचे वाली जाति के दमन पर, उनके मानवीय अधिकारों के हनन पर आधारित व्यवस्था है। बेशक, आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के साथ शुरू हुई थी और स्वतंत्रता के बाद कभी तेज, तो कभी रुक-रुक कर जारी रही है, जाति पर आधारित इस दमन को ध्वस्त कर, सामाजिक बराबरी की स्थापना के लिए संघर्ष की भी परंपरा रही है। इस परंपरा में सामाजिक आंदोलनों से लेकर, सामाजिक बराबरी पर आधारित व्यवस्था के हमारे संविधान तक, सभी शामिल हैं।
लेकिन इस धारा के विपरीत, संघ परिवार शुरूआत से इस विभाजन के दमनकारी के पक्ष के साथ रहा है, न कि दमित पक्ष के। अपने एक सदी के इतिहास में उसने ऊंची जातियों के विशेषाधिकारों की हिमायत से लेकर, निचली जातियों के दमन की सच्चाई को नकारने तक की कई मुद्राएं बदली हैं, जातिप्रथा के महिमा मंडन से लेकर, उसके अस्तित्व से ही इंकार करने तक के सिद्घांत गढ़े हैं और अब पिछले कुछ समय से बड़ी हिचक के साथ उसकी सच्चाई को स्वीकार करना भी शुरू किया है—लेकिन उसका पक्ष, विशेषाधिकार-प्राप्तों का ही पक्ष बना रहा है। उसका मूल दर्शन, मनुवाद का ही दर्शन बना रहा है। यहां से, जैसाकि भागवत अपने दशहरा भाषण में करते हैं, ऐसी ताकतों के सभी रूप जो सामाजिक यथास्थिति को चुनौती देती हैं, मनुवाद को चुनौती देती हैं, हिंदू एकता के ‘तोड़क’ नजर आते हैं और जो भी ताकतें सामाजिक यथास्थिति को पुख्ता करती हैं, एकता कायम करने वाली नजर आती हैं।
लेकिन, हमारे जैसे सीमित जनतंत्र में भी, जिसे मोदीशाही के दस साल ने और बहुत सिकोड़ दिया है, सार्वभौम वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है, मनुवाद के और सामाजिक यथास्थितिवाद के दर्शन को अपनाना, राजनीतिक रूप से महंगा पड़ सकता है। इसलिए, इन ताकतों के लिए अपना वास्तविक चेहरा छुपाकर, वंचितों को ठगने की कोशिश करना जरूरी हो जाता है। दमितों-वंचितों के लिए आरक्षण से लेकर, जातीय जनगणना तक, चाहते हुुए भी क्योंकि खुले तौर पर उनका विरोध नहीं कर सकते हैं, इसी को ढांपने के लिए कटेंगे का डर दिखाकर, वास्तविक विभाजनों पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है। ‘बटेंगे’ का नारा ठीक इसी ठगी का साधन है और ‘कटेंगे’ का डर, इस ठगी का हथियार। जाहिर है कि यह डर इतना झूठा है कि इस सरल से कॉमनसेंस के सवाल तक का सामना नहीं कर सकता है कि हिंदू एकता के लिए इतने मुफीद बताए जा रहे मोदी राज में, कटेंगे का डर इस कदर बढ़ कैसे सकता है? कटेंगे का डर दिखाकर, जो समाज को स्थायी रूप से हिंदू बनाम अन्य में बांटा जा रहा है, उसे तो खैर अब चुनाव आयोग की मिलीभगत के बाद, संघ परिवार को छुपाने की भी जरूरत नहीं रह गई है।
*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*