‘उद्भावना’, हिन्दी-उर्दू साहित्य पर केन्द्रित एक वैचारिक पत्रिका है। बीते अड़तीस साल से यह लगातार निकल रही है। ‘उद्भावना’ का हर अंक कुछ ख़ास होता है। पत्रिका ने अपनी वैचारिक पक्षधरता कभी नहीं छिपाई। और यह पक्षधरता है, पाठकों के बीच जनवादी-प्रगतिशील मूल्यों का प्रसार। ‘उद्भावना’ का जनवरी-मार्च, 2024 यानी 158 अंक भी इन्हीं गौरवशाली विशेषांकों के सिलसिले की अगली कड़ी है, जो महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लेखक और देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर केन्द्रित है। अंक को ख़ास बनाने के लिए पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने बड़ी मेहनत की है। उन्होंने इस विशेषांक को पांच हिस्सों ‘दस्तावेज़’, ‘नेहरू के विचारों की दुनिया’, ‘साहित्य के बारे में नेहरू’, ‘साहित्यकारों की नज़र में नेहरू’ और ‘नेहरू एवं उनकी विचारधारा पर केन्द्रित आलेख’ में बांटा है और प्रत्येक खंड में विषय से संबंधित पर्याप्त सामग्री है। ‘दस्तावेज़’ के अंतर्गत पत्रकार राजेन्द्र माथुर, तरक़्क़ीपसंद अदीब सज्जाद ज़हीर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और इतिहासकार रामचंद्र गुहा के दस्तावेज़ी लेख हैं, जिनसे पं. जवाहरलाल नेहरू का विस्तृत नज़रिया और सोच ज़ाहिर होती है, तो वहीं इन शख़्सियात की नज़र में देश निर्माण में नेहरू का क्या योगदान है, यह भी मालूम चलता है।
नेहरू साहित्यकारों, कलाकारों के बीच बेहद मक़बूल थे। उनकी इस मक़बूलियत के कई किस्से आज भी मुल्क की फ़िज़ाओं में बिखरे पड़े हैं। नेहरू और प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के बीच क्या रिश्ता था और नेहरू ने निराला को आर्थिक परेशानियों से उबारने के लिए किस तरह से मदद की?, रामचंद्र गुहा ने अपने लेख ‘नेहरू और निराला’ में इसे विस्तार से लिखा है। पत्रिका में वह पत्र भी प्रकाशित किया गया है, जो नेहरू ने साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिव कृष्ण कृपलानी को लिखा था। इस पत्र में नेहरू ने लेखकों और कवियों की सहायता के लिए कॉपीराइट कानून में संशोधन के विषय में विचार करने को तो कहा ही था, इसके साथ ही शिक्षा मंत्रालय के फंड से निराला को 100 रुपए प्रति माह देने का बंदोबस्त करने की सिफ़ारिश भी की थी। हिन्दी साहित्य के एक और बड़े साहित्यकार ‘अज्ञेय’ अपनी नौजवानी के दिनों में नेहरू और उनकी विचारधारा से किस क़दर निकट थे और उनकी किताब ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोअम्ज़’ की भूमिका नेहरू ने कैसे लिखी?, इन सब बातों का हवाला वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के लेख ‘बंदी जीवन, अज्ञेय और नेहरू’ में मिलता है। अपने इसी लेख में ओम थानवी बताते हैं कि साल 1949 में नेहरू की षष्टिपूर्ति पर दो खंडों में जो 1600 पन्नों का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित हुआ, उसके संपादक-मंडल में सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ सबसे युवा सदस्य थे। इसी लेख से यह मालूम चलता है कि अभिनंदन ग्रंथ में आंद्रे जीद, हेरल्ड लास्की, स्टीफेन स्पेंडर, आर्थर मूर, एड्गर स्नो जैसे विदेशी लेखकों-विद्वानों ने भी नेहरू की अज़ीमुश्शान शख़्सियत और उनके काम पर अपने ख़यालात भेजे थे।
प्रभात पटनायक ने अपने लेख ‘सत्य-निष्ठा का व्यक्तित्व’ में नेहरू की शख़्सियत के उन पहलुओं की तरफ़ इशारा किया है, जो उन्हें दूसरे राजनेताओं से अलग करता है। प्रभात पटनायक लिखते हैं, साल 1935 में नेहरू की पत्नी कमला नेहरू गंभीर तौर से बीमार थीं और उन्हें इलाज के लिए यूरोप भेजने की बात उठी। लेकिन उस वक़्त नेहरू जेल में थे और उन पर न ही इतना पैसा था, कि वे उन्हें इलाज के लिए यूरोप भेज पाएं। बिरला परिवार ने नेहरू को मदद देने की पेशकश की, मगर उन्होंने उसे साफ़ ठुकरा दिया। साम्राज्यवाद और फ़ासीवाद से नेहरू किस क़दर नफ़रत करते थे, यह बात भी किसी से छिपी नहीं। प्रभात पटनायक ने अपने इसी लेख में इस बात का भी उल्लेख किया है कि नेहरू ने इटली के फासिस्ट नेता मुसोलिनी का अतिथि बनने से साफ़ इंकार कर दिया था, तो वहीं हिंदुत्ववादी बी.एस. मुंजे विशेष तौर पर मुसोलिनी की शासन-प्रणाली का अध्ययन करने इटली गए थे। मोहम्मद अली जिन्ना से नेहरू के वैचारिक स्तर पर कई मतभेद थे और अपने सिद्वांतों एवं सत्य की रक्षा के लिए वे हमेशा उनसे संघर्ष करते रहे। पत्रिका में ‘जिन्ना-नेहरू संवाद’ के अंतर्गत दिसम्बर, 1939 में नेहरू-जिन्ना के बीच हुए पत्राचार को भी प्रकाशित किया गया है, जिससे मालूम चलता है कि नेहरू अपने विचारों के प्रति कितने अडिग और प्रतिबद्ध थे।
आज़ाद भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू शासन के सत्रह साल, देश का एक सुनहरा दौर था। इस दौर में देश ने काफ़ी तरक़्क़ी की। नये-नये संस्थान बने, जिससे भारत की एक नई पटकथा लिखी गई। यह दौर साहित्य, सिनेमा और कला का भी स्वर्णिम दौर था। ‘हिंदी सिनेमा का नेहरू युग : आशंकाओं और उम्मीदों का दौर’ लेख में फ़िल्मों के गंभीर अध्येता जवरीमल्ल पारख ने नेहरू ज़माने में आईं हिंदी फ़िल्मों पर उनकी विचारधारा और सोच का कितना असर था, इसका बेहतरीन विश्लेषण किया है। बीते एक दशक में हमारे देश में सबसे ज़्यादा हमला वैज्ञानिक सोच पर हुआ है। बौद्धिकता और विवेक पर आए दिन हमले होते रहते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि देशवासियों में वैज्ञानिक मानसिकता विकसित की जाए। उन्हें रूढ़िवाद, कर्मकांड, तर्कहीनता, विचार शून्यता और अंधविश्वास से बाहर निकाला जाए। इसी ज़रूरत का ख़याल रखते हुए पत्रिका में प्रख्यात वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, समाज विज्ञान व कला से जुड़े बुद्धिजीवियों का आज से चार दशक पहले 19 जुलाई, 1981 में जारी एक बयान ‘ए स्टेटमेंट ऑन साईंटिफ़िक टेंपर’ प्रकाशित किया गया है, जो तेतालिस साल बाद भी प्रासंगिक है। लेख का अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद डॉ. जानकीप्रसाद शर्मा ने किया है। इस लेख के अलावा पत्रिका में और भी कई लेख अंग्रेज़ी से ही लिए गए हैं, जिनका बेहतरीन अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार संजय कुंदन, प्रियदर्शन, शुभनीत कौशिक और शैली ने किया है।
विशेषांक की सबसे बड़ी ख़ासियत मुल्क के अहम मुद्दों ‘अगर आपस में फूट है, तो आज़ादी नहीं’, ‘भारत माता की जय’, ‘साम्प्रदायिक आदमी का दिमाग़ कुंद होता है’, ‘धर्म क्या है?’, ‘राष्ट्रवाद’, ‘राष्ट्र-भाषा का प्रश्न’, ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ आदि पर नेहरू के ख़यालात को पाठकों के सामने लाना है। इन मसलों पर ख़ुद नेहरू का क्या सोचना था, उसे पाठकों के बीच लाना है, ताकि नेहरू की सही तस्वीर देशवासियों के बीच पहुंचे। पत्रिका के एक खंड में ‘साहित्य के बारे में नेहरू’ के विचारों ‘हमारा साहित्य’, ‘साहित्य की बुनियाद’, ‘मैं कब पढ़ता हूं’ को भी संकलित किया गया है। 27 मई को पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन को 60 साल पूरे हो गए हैं।
उन्हें गुज़रे इतने साल हो गए, लेकिन संघ परिवार यदि आज भी किसी से सबसे ज़्यादा डरता है या किसी पर हमलावर है, तो वह नेहरू और उनकी विचारधारा है। ‘उद्भावना’ के संपादक अजेय कुमार ‘अपनी बात’ के अंतर्गत कई ठोस दलीलों से यह साबित करते हैं कि ”अगर उस वक़्त नेहरू राजनीतिक मंच पर उपस्थित न होते, तो यह देश 1947 में ‘हिंदू राष्ट्र’ बन गया होता।” अपनी इसी भूमिका में वे यहां तक लिखते हैं, ”हिंदू राष्ट्र के बरक्स एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा को वे आम भारतवासियों के दिलों तक ले जाने में सफल रहे।”
बीते एक दशक में पं. जवाहरलाल नेहरू की विचारधारा और नीतियों पर जितने हमले हुए, उतने आज तक किसी राजनेता पर नहीं हुए। बावजूद इसके उनकी छवि आज भी अक्षुण्ण है। उन पर जितना हमला होता है, उनकी छवि और भी ज़्यादा निखरकर सामने आती है।
नेहरू की छवि मीडिया इवेंट से नहीं, बल्कि देश की आज़ादी के लिए किए गए उनके अनथक संघर्ष और आज़ादी के बाद, देश के नवनिर्माण से बनी थी। आधुनिक भारत को बनाने में नेहरू का जिस तरह का योगदान है, वह सब इतिहास में दर्ज है। नेहरू पर कोई लाख हमला करे, देशवासियों की नज़र में उनकी जो छवि बनी हुई है, वह कभी टूटने-दरकनेवाली नहीं। जबकि हमला करनेवाले उनके सामने बौने नज़र आते हैं। पत्रिका के कवरपेज़ पर नेहरू की मुस्कराती हुई तस्वीर के नीचे यह टैगलाइन कितनी सटीक है, ‘गालियां खा के बेमज़ा न हुआ’।
*(समीक्षा : ज़ाहिद ख़ान)*
*(समीक्षक साहित्यकार-पत्रकार हैं। संपर्क : 94254-89944)*
*(समीक्षा : पत्रिका ‘उद्भावना’ का नेहरू अंक : जनवरी-मार्च 2024, संपादक : अजेय कुमार, पृष्ठ : 120, मूल्य : 50 रूपये, संपर्क : 098115-82902)*