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विष्णु नागर के दो व्यंग्य

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*1. महिला हो, जानती नहीं हो!*

सच ही कहा नीतीश जी और आपकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री लल्लन सिंह जी ने और क्या ही संयोग है कि दोनों ने एक ही दिन, लगभग एक-सी बात अलग-अलग शब्दों में अलग-अलग महिलाओं के लिए कहकर उन्हें ‘सम्मान’ दिया! एक ही दिन, एक ही पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं के नेत्र खुले, ज्ञान का विस्फोट हुआ।पता नहीं, वह कौन-सा बोधि वृक्ष था, जहां दोनों को यह परम ज्ञान न जाने कितने वर्षों की तपस्या के बाद प्राप्त हुआ! उस वृक्ष की खोज होना चाहिए। उसकी पूजा आरंभ होनी चाहिए। उस वृक्ष के नीचे बैठाकर इन दोनों की पूजा करना चाहिए! इस पूजा में महिलाओं को विशेष उत्साह से भाग लेना चाहिए!

सच ही कहा आप दोनों ने कि महिला कैसे जान सकती है? उसे तो चुपचाप सुनने की अकल तक नहीं! अगर होती, तो नीतीश जी को यह कहना नहीं पड़ता कि महिला हो, जानती नहीं हो, चुपचाप सुनो। अकल होती, तो जो बजट सबसे कमजोर लोगों को सबसे पहले और सबसे अधिक समझ में आना चाहिए, उस पर टिप्पणी करनेवाली राबड़ी देवी की समझ पर सवाल नहीं उठाया जाता। उनके अधिकार को चुनौती नहीं दी जाती!

अकल तो खैर सारी की सारी हम पुरुषों के हिस्से में आ चुकी है! कुछ मेरे पास होगी, कुछ आपके पास और बाकी सारी मोदी जी, शाह जी, आदित्यनाथ जी के पास!थोड़ी-बहुत गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू में भी रही हो शायद और थोड़ी सी शायद राहुल गांधी के पास भी अकल आ गयी हो! काश, महिलाओं में भी अकल होती, उनके पास आप-हम जैसे ‘विद्वान’ पुरुषों की बात चुपचाप सुनने का समय होता!

आपने-हमने तो पूरी कोशिश की कि महिलाएं न जानें, उनके भेजा हमेशा खाली रहे। उनका ज्ञान चौके-चूल्हे तक सिमटा रहे! इसी हेतु जब वे लड़की थीं, तो हमने अपने-अपने घरों में उन्हें पूरा खाना नहीं दिया! पौष्टिक आहार का तो प्रश्न ही नहीं उठता! उनकी मांओं को भी कहां भरपूर और पौष्टिक खाना मिला, मगर भरपूर काम उन्होंने किया? लड़की जब आठवीं-दसवीं तक पढ़ गई तो कह दिया, बहुत पढ़ गई। पराया धन है। अधिक पढ़ेगी, तो बिगड़ जाएगी। प्रेम आदि के चक्कर में फंस जाएगी। खानदान की इज्जत के चीथड़े उड़ा देगी।

उसे बैठा दिया गया घर में। उसे रोटी बनाने, गोबर पाथने के काम में लगा दिया। घर से बाहर जाने से रोक दिया।लड़कों से बात करने से मना कर दिया। प्रेम करने नहीं दिया। उससे प्रेम करने की और उसने प्रेम करने की कभी ‘गलती’ की, तो बंदूकें और पिस्तौलें तक निकल गईं।किसी लड़के संग भाग गई, तो दोनों को पकड़ के चीर दिया गया। और यह सब नहीं हुआ, तो किसी के संग गाय-बैल की तरह बांध दी गई। बेच दी गईं, खरीद ली गईं। वेश्या बना दी गईं। भूल जाना पड़ा उन्हें अपना सारा अतीत, अपना गांव, अपना शहर, अपना परिवार। बिसार देना पड़ा सब कुछ। उससे सारे रिश्ते तोड़ लिए गए। उसे मरा हुआ मान लिया गया। उसे अपने पूरे विगत पर पोंछा लगा देना पड़ा! किसी नीतीश कुमार, किसी लल्लन सिंह, आपको और मुझे यह कभी करना नहीं पड़ा! हमारे गुनाह, गुनाह कभी नहीं रहे। हम पकड़े गए, तो हमारी बेगुनाही के पक्ष में सारा परिवार खड़ा हो गया!

फिर भी देखिए, आज पंचायतों, विधानसभाओं और लोकसभा में आकर महिलाएं खड़ी हो‌ रही हैं। सवाल दर सवाल दाग रही हैं। सवालों के घेरे में सब ‘बेगुनाहों’ को ला रही हैं। उन्होंने जीवन के उन सारे क्षेत्रों में आना शुरू कर दिया है, जो पहले उनके लिए निषिद्ध थे। वे सैनिक बनीं, पायलट बनीं। आईएएस अधिकारी बनीं, आईपीएस बनीं। सिपाही बनीं, जज बनीं, प्रोफेसर बनीं, वैज्ञानिक बनीं‌‌। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनीं। वे पहलवान बनीं और उनके शरीर का फायदा उठाने की कोशिश करनेवाले के विरुद्ध जमकर लड़ीं। एक तरफ पूरी सरकार थी, गुंडे थे, फिर भी लड़ीं। जहां भी वे हैं, वहां लड़ीं। पति छोड़ गया या किसी दुर्घटना में दुनिया से जाता रहा, तो बच्चों को अपनी पीठ पर बांधकर जीवन के हक में लड़ीं और लड़ती ही रहीं। बच्चे भूल गए, सड़क पर बेहाल-बेसहारा छोड़ गए, तब भी उनकी सलामती की दुआ करती रहीं।

और बहुत पीछे नहीं जाएं तो नीतीश जी, वे देश की आजादी के लिए लड़ीं। लक्ष्मीबाई होकर लड़ीं, बेगम हज़रत महल होकर लड़ीं। वे अरुणा आसफ अली होकर, लक्ष्मी सहगल होकर, सरोजनी नायडू होकर लड़ीं। वे आजादी के बाद मेधा पाटकर, अरुंधती राय होकर लड़ीं।हर जगह, हर मोर्चे पर, हर इंच जगह के लिए लड़ीं। वे रोटी बनाते हुए, कपड़े धोते हुए, बरतन मांजते हुए, खेत पर मजदूरी करते हुए, ईंटें ढोते हुए, कारखानों में, आफिसों में‌ नौकरी करते हुए लड़ीं। पुरुषों की हिंसक और अश्लील नजरों से लड़ीं।

और ऐसा नहीं वे अपने लिए ही लड़ीं। वे हमारे-आपके लिए, हमारे बच्चों के भविष्य के लिए लड़ीं। वे साथ-साथ लड़ीं और मौका आया, तो सामने खड़ी चट्टान से टकराने से भी नहीं डरीं। अकेले लड़ीं। लड़ीं ही नहीं, प्यार भी किया, त्याग भी किया। आधी रोटी खाकर घर के लोगों को पूरी रोटी खिलाई। वे यह जानते हुए लड़ीं कि तुम उन्हें कभी भी, कहीं भी धोखा दे सकते हो। वे चुप रहकर लड़ीं और चीखना-चिल्लाना पड़ा तो उस तरह भी लड़ीं। उनके चरित्र पर किसी ने लांछन लगाया, तो और जोर से लड़ीं।और आज भी और अधिक मुखर होकर लड़ती रही हैं।हमें बेचैन किये दे रही हैं। ठीक है, कमजोरियां तो उनमें भी रहीं होंगी, गलतियां उन्होंने भी की होंगी और कितना अच्छा है कि किसी नीतीश कुमार, किसी मोदी, किसी शाह में कभी कोई कमजोरी नहीं रही, कोई ग़लती नहीं की। इनके चरित्र हमेशा से ‘उज्जवल’ थे, उज्जवल रहे।

बच्चा लोग इस पर ताली बजाओ! इतने जोर से बजाओ ताली कि पटना में बजे तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे! एक बार लगे कि सिंहासन डोल रहा है!!
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*2. मच्छर पुराण*

यह तब की बात है, जब चुनाव हो रहे थे।

उस मौसम में मच्छर गरीब से गरीब को भी नहीं काटते थे, मगर मच्छर सुरक्षा के तमाम घेरों को तोड़कर रात भर फलांने जी को अवश्य काटते थे। आश्चर्य कि उनके नौकर-चाकरों की लंबी-चौड़ी फौज में से किसी एक को भी नहीं काटते थे। फलांने जी से उन्हें इतनी जबरदस्त मोहब्बत थी कि सीधे उनके पास पहुंचते और काटते।उन्होंने सारे संभव उपाय करवाए, मगर मच्छरों को उनका खून इतना ज्यादा पसंद आया था कि तमाम तरह के खतरे उठाकर भी मच्छरों ने उन्हें काटना नहीं छोड़ा। काटते ही चले गए! थकने का नाम ही नहीं लिया। मच्छरों ने काटने का परिश्रम दिन में सोलह घंटे नहीं, बल्कि चौबीस घंटे किया। परिश्रम करने का ऐतिहासिक रिकार्ड पेश किया। सोलह घंटे वाले को शर्मिन्दा करना भी लगता है उनका उद्देश्य था। मच्छरों ने यह सिद्ध किया कि जब सचमुच कुछ कर गुजरने की धुन होती है, तो घंटे नहीं गिने जाते। सोलह घंटे में थका नहीं जाता। रात-दिन नहीं सोचा जाता!

फिर भी मैं कहूंगा, बुरा किया मच्छरों ने। उनकी यह लगन, यह धुन प्रशंसनीय है, मगर देश के लिए 16 घंटे काम करने वाले के साथ ऐसा करना विशुद्ध बदतमीजी ही कहा जाएगा। मगर उन्होंने की और जमकर की। गाय, भैंस, बकरी, भेड़, बैल आदि हैं काटने के लिए सहज उपलब्ध। हिंदुस्तान की सारी जनता इसके लिए सुलभ है, मगर मच्छरों ने फलांने जी को ही अपने भोजन के लिए पाया सबसे उपयुक्त। उन्हें काटते और अपनी पूरी फौज के साथ जी भरकर काटते। सुबह-दोपहर-शाम काटते। रात भर काटते। हर मौसम में हर क्षण काटते। बंदूक, पिस्तौल, पुलिस, फौज किसी से नहीं डरते। पद से नहीं डरते।उस शख्स द्वारा राष्ट्र के प्रति की गई ‘सेवाओं ‘ से नहीं डरते। एक राय यह है कि राष्ट्र के प्रति की गई उसकी ‘सेवाओं’ से तंग आकर ही मच्छर ऐसी हरकत करते थे। विरोधियों का काम आसान करते थे। इन्हें इतनी समझ नहीं थी कि जिसका डंका दुनिया भर में बज रहा है, उसे तो छोड़ देते! उसकी नहीं, उसके दुनिया भर में बजते डंके की तो परवाह करते? उसके पद की, उसकी प्रतिष्ठा की, उसकी लोकप्रियता की, उसके भगवा की, देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की उसकी ‘पवित्र भावना’ की फ़िक्र करते! मगर मच्छर हैं, नागरिक नहीं। नहीं की, तो नहीं की!

और यह ठीक नहीं किया मच्छरों ने। फलांने जी ने नागरिकों के साथ जो भी किया हो, मगर मच्छरों के साथ तो कोई अन्याय कभी नहीं किया! न नोटबंदी उनके खिलाफ थी, न लाक डाउन उनके विरुद्ध था। उनके किसी काम में कभी कोई बाधा नहीं डाली। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया, हिंदू-मुसलमान नहीं किया। उनकी आजादी का सम्मान किया। फिर भी ऐसा अन्याय, ऐसा जुल्म, ऐसी दुष्टता मच्छरों ने की!

मच्छरों ने यह अपने भविष्य के लिए ठीक नहीं किया।मगर मच्छर तो जी, ठहरे ठेठ मच्छर। इन्होंने कब भविष्य की, सही-गलत की परवाह की? उनके मां -बाप ने उन्हें एक ही बात सिखाई कि जिसके कि शरीर में खून हो, काटो। अधिक खून है, खूब तर माल से बना खून है, तो अधिक और अधिक काटो और जियो और जीते चले जाओ। और अगर इस दौरान मार दिए जाओ, तो मरने की परवाह मत करो। इसका घमंड मत पालो कि तुम शहीद हो गए। तुम न मंत्री हो, न मुख्यमंत्री, न प्रधानमंत्री! तुम्हारी जान कीमती नहीं। तुम्हारे मरने से किसी को कोई अंतर नहीं पड़ेगा, इसलिए जितना जी सकते हो, जिओ। जितना बच सकते हो, बचो, मगर अपने कर्तव्य से च्युत मत होओ।

और फिर यह भी तो सोचो, हम मच्छरों को कौन सा स्वर्ग जाना है, जो मनुष्य को काटने के दुष्कर्म के कारण हम नरक भेज दिए जाएंगे! हम पर न मनुष्यता को बचाने का भार है, न देश की सुरक्षा का, न देश को 2047 तक विकसित करने का! न रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध रुकवाने का! खून पियो और जिओ।

मच्छरों ने दरअसल फलांने जी की मजबूरी का खूब फायदा उठाया। शायद मच्छर भी जानते थे कि अभी चुनाव का समय चल रहा है, हमारे काटने को माइंड करके भी, फलांने जी अधिक माइंड नहीं कर पाएंगे। वे कहेंगे कि ठीक है, काटो! अरे मच्छरों ने ही तो काटा है।काटना उनका धर्म है। वे नहीं काटेंगे, तो जिन्दा कैसे रहेंगे? और जिंदा रहने का अधिकार तो मच्छरों को भी उतना ही है, जितना इस देश के बहुसंख्यकों को! यह फंडामेंटल राइट है इनका। इनके जीवन-मरण से जुड़ा मसला है यह। उस समय तो फलांने जी यह भी कह सकते थे कि आओ मच्छरो, आओ। आओ और काटो। जितना काट सकते हो, काटो। एक बार चुनाव हो जाने दो, जीत जाने दो, फिर देखना, तुम्हारी क्या हालत करता हूं। तब तो फलांने जी को विश्वास था कि मच्छर भी हिंदू हैं और उन्हें ही वोट देंगे। लेकिन मच्छर तो मच्छर, हिंदू भी चुनाव के बाद उतने वफादार नहीं निकले, जितनी उनसे उम्मीद की जा रही थी!

*(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और पत्रकार हैं। स्वतंत्र लेखन में सक्रिय। संपर्क : 98108-92198)*

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