कुछ हजार करोड़ में बने और अभी-अभी प्राण-प्रतिष्ठित बताये जाने वाले अयोध्या के मन्दिर की रिसन और उसकी ओर जाने वाली सड़कों का पाताल में समाना रुका भी नहीं था कि पुल गिरने लगे। ऐसे गिरे कि गिरते ही जा रहे हैं और “खरबूजे को देखकर खरबूजे रंग बदलते हैं” की तर्ज पर “गिरते पुल को देख पुल गिरते हैं” की नई कहावत गढ़ रहे हैं। रफ़्तार कुछ ऐसी है कि एक के गिरने की धमक रुकती नहीं कि दूसरा टूटकर टपक जाता है। बिहार में अकेले एक दिन में 5 पुल गिरे, 19 दिन में 13 गिरे – इन पंक्तियों के लिखते-लिखते उनकी संख्या 15 हो गयी है। इनकी देखा-देखी पड़ोसी राज्य झारखंड की अरगा नदी का पुल गिर गया, तो दूरस्थ प्रदेश उत्तराखंड में एक पुल पूरे का पूरा ही बह गया। मध्यप्रदेश में पिछली बारिश में ही इतने सारे गिर चुके थे, बाद में गिरने के लिए लगभग कोई बचा ही नहीं।
इतिहास में इस कालखण्ड को पुलों के टूटने, दरकने, गिरने और बहने के कालखंड के नाम से जाना जाएगा । ये पुल अपने आप नहीं गिर रहे हैं – अनायास नहीं गिर रहे हैं ; इन्हें गिराने के समुचित प्रबंध किये गए थे, खूब जतन के साथ इन पर अमल किया गया था। ईंट, गारे, बजरी, सीमेंट के गिरे हुए पुल थोड़ा शोर, थोड़े स्यापे, एक-दूसरे के सर पर हांड़ी फोड़ने और मिल-मिलाकर एक दूसरे को साफ़ बचाने के कर्मकांड के बाद फिर से गिरने के लिए एक बार फिर बना दिए जायेंगे।
मगर असली चिंता उन पुलों की है और जिन्हें कारपोरेट की गोद में बैठे हिन्दुत्व के कुनबे ने हमेशा के लिए गिरा देने का बीड़ा उठाया हुआ है। मौजूदा निजाम ने सत्ता में पहुँचने के बाद पुलों – हर तरह के पुलों – को तोड़ने और कमजोर करने का काम ही तो किया है। हजार, दो हजार, पांच हजार साल में बने पुलों को हिलाने, उनकी नींवो को झकझोरने, उनमें पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
सभ्यताओं के निर्माण की असल कहानी अनगिनत पुलों के बनने और बनाए जाने की कहानी है। जंगल से निकलने के बाद अलग-अलग कबीलों, कुटुम्बों, नस्लों, प्रजातियों और संस्कृतियों ने एक दूजे तक पहुँच बनाने के लिए धीरज के साथ ऐसे पुल बनाए जिनसे आना और जाना दोनों सहज बनाया जा सके। संस्कृतियाँ इसी मेल-जोड़ से बनी संवरी, सभ्यताओं ने इन्ही पुलों के मजबूत ढांचों की बुनियाद पर खड़े होकर अपनी ऊंचाईयां हासिल कीं और यहाँ तक पहुंची। कच्चे अधबने मकानों को घर में और घरों के योग को समाज के रूप में ढाला भी – संजोया भी ।
ऐसे वैसे कई युग गुजरने के बाद यही समाज राज्यों और देशों के रूप में संगठित और पुनर्गठित हुए। खुद भारत इसकी जीती जागती और अनूठी मिसाल है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी प्रसिद्ध कविता “भारत तीर्थ” में विस्तार से इसे दर्ज किया । उसकी शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि :
“हे मोर चित्त पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे एई भारतेर / महामानवेर सागर तीरे / हेथाय दांडाए दु बाहू बाडाये / नमि नर देवतारे / हेथा आर्य हेथा अनार्य शक-हुन दल / पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन / एई भारतेर / महामानवेर सागर तीरे / दांडारे धीरे!!”
(कोई नहीं जानता किसके आह्वान पर मनुष्य की कितनी धारायें प्रबल वेग से आई, किधर से आईं और मिल कर भारत के मानवों के महासागर में हो गयी विलीन। यहाँ आर्य हैं, अनार्य हैं, द्रविड़ और चीनी, शक, हूण के जत्थे, मुगल और पठान सब एक देह में लीन। पश्चिम के द्वार खुले है आज, सब वहाँ से ला रहे हैं उपहार/ इस भारत के महामानव के समुद्र तट पर वे/ देंगे और लेंगे, मिलायेंगे और मिलेंगे। जायेंगे नहीं लौट कर।)
इसे ही फ़िराक गोरखपुरी साहब ने अपनी तरह से कहा कि :
“सरजमीने हिन्द पर अक्वाम-ए-आलम* के फ़िराक /
काफिले बसते गए, हिन्दोस्तां बनता गया !!”
(*अक्वामे आलम = दुनिया भर की कौमों)
यहाँ सिर्फ दो का कहा लिखा गया है। किन्तु यही बात भारत में मौजूद 8 भाषा परिवारों की, 1652 मातृभाषाओं और 19500 बोलियों में किसी न किसी तरह से दर्ज की गयी। उस संस्कृत और फारसी में भी, जिसे आर्य और बाकी आगंतुक अपने साथ लाये थे, उन द्रविड़ भाषाओं में भी, जिन्हें इन सबके आने के सैकड़ों वर्ष पहले से यहाँ रहने वालों ने संजोकर रखा था।
बहरहाल ऐसा, रातों रात अपने आप नहीं हो गया था। गुरुदेव जिन्हें मनुष्य की कितनी धारायें और फ़िराक जिन्हें दुनिया भर की कौमें बताते हैं, वे शक, हूण, कुषाण, यवन, तुर्क, मंगोल, पठान, गुर्जर, आर्य, पारसी, यहूदी और क्रिस्तान और उनसे हजारों साल पूर्व पाँव-पाँव यूरोप और एशिया को तय करते अफ्रीकन, हिन्दुकुश के पर्वतों, हिमालय की श्रृंखलाओं और घाटियों को लांघते, असीम कष्ट सहते इस भूखण्ड पर आये और फिर यहीं के होकर रह गए। रहते-बसते आपस में जुड़ने के लिए पुल बनाये, दिया भी, लिया भी, मिले भी, मिलाया भी और इस तरह के अनगिनत पुलों से बना वह हिन्दुस्तान, जिसे अब “भारत दैट इज इंडिया” के नाम से जाना जाता है और जिसकी तासीर “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी / सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा” के सूत्र में अल्लामा इकबाल ने बयान की है।
कुल जमा यह कि भारत पुलों का जोड़ है – इधर की, उधर की ईंटों के मेलमिलाप का जोड़ है – इन्हीं पुलों के मेल और जोड़ से खिली है अनेकता में एकता की शानदार मिसाल विविध संस्कृतियों वाली रंग-बिरंगे फूलों की बगिया। इस देश का दुर्भाग्य है कि उसकी बागडोर उनके हाथों में हैं, जो इन पुलों को तोड़ने और बगिया को उजाड़ने में लगे हैं।
लिहाजा वास्तविक फिक्र की बात ये पुल हैं। पहली बारिश में कागज़ की तरह बह गए पुल तो बन, बना जायेंगे – लेकिन हजारों साल की बारिश, आंधी और बाढ़ में अडिग बने रहे ये पुराने पुल अगर दरक गए, तो लम्हों की खता की सजा सदियों को भुगतनी पड़ सकती है। इस कुनबे का निशाना अनेकता में एकता की नींव पर है, सदियों पुराने संग साथ पर है।
उनके निशाने पर भाषाएँ हैं। वे एक देश, एक भाषा के नाम पर बाकी सबको पहले दोयम दर्जे पर और आखिर में विलुप्ति की कगार पर पहुंचाना चाहते हैं। नीट जैसी केंद्रीकृत प्रतियोगी परीक्षाओं और अपराध की नई संहिताओं के नामकरण के जरिये वे इसकी शुरुआत कर भी चुके हैं।
दूसरी भाषाएँ तो हैं ही उनके निशाने पर, खुद उनकी भाषा है जिसे असंस्कारित. अभद्र और अशिष्ट बनाकर दुर्भाषा बन भी रहे है, बना भी रहे हैं।
विधवाओं और शूद्रों को जीवित ही फूंक देने वाले बर्बर युग से थोड़े बहुत सभ्य समाज तक लाने के लिए राजा राममोहन रायों, ईश्वरचंद्र विद्यासागरों, विवेकानन्दों से होते हुए जोतिबा और सावित्री फुले, पेरियारों और अम्बेडकरों से लेकर सुधार आंदोलनों और वामपंथ की तहरीकों ने पुल बनाये थे ; कुरीतियों और अंधविश्वास की भंवर पार करने के लिए बनाये गए इन पुलों को ढहाकर सामाजिक भूगोल को एक बार फिर मनु और गौतमों के ऊबड़ खाबड़ में तब्दील करने की मुहिम छेड़ दी गयी है।
बुद्ध, नानक द्वारा तामीर किये गए पुल तोड़ने की धुन में समाज को आईना दिखाने वाले साहित्य और उसके भी प्रयत्नों से बनी संवरी साझी संस्कृति के मजबूत पुलों की जड़ों में मट्ठा डाला जा रहा है।
सबसे योजनाबद्ध हथौड़ा उस शिक्षा पर चलाया जा रहा है, जिसने कंदराओं के युग को वापस कंदरा में धकेल कर, मस्तिष्कों में जमे अंधेरों को झकास रोशनी में बदला था।
आर्यभट्टों, वराह मिहिर से भाभा और विक्रम साराभाई जैसों के अंतरिक्ष विज्ञान की जगह फलित ज्योतिष और हाथ की रेखाओं में लिखी नियति को बिठाया जा रहा है।
विश्वविद्यालय मनुष्य को इंसान बनाने की कठिन राह के भरोसेमंद पुल थे – उनमें भेड़ियों की मांदें बनाई जा रही है।
मनुष्य और पशु में एकमात्र अंतर, प्रकृति आश्रित असहाय पशु जीवन से समर्थ और प्रकृति को भी नियंत्रित करने की क्षमता वाला मनुष्य बनने की एकमात्र वजह श्रम थी। श्रम ही वह पुल था, जिसकी मदद से मनुष्य और समाज अस्तित्व में आया था। श्रम से हासिल मूल्य ही वह ईंधन था, जिससे उसकी गाड़ी सरपट दौड़ सकती है। मौजूदा निजाम श्रम के पहले से ही सीमित अवसरों को भी छीन कर उसे कातर याचक में बदल रहा है।
सबसे बढ़कर संविधान और कानून के राज के उस पुल को ईंट-ईंट करके तोड़ा जा रहा है, जिसने भारत को भारत बनाया।
पुलों के तोड़ने, उन्हें झकझोरने की एक पूरी श्रृंखला है, जिसे गिनाने के लिए यह स्थान पर्याप्त नहीं होगा। सार की बात यह है कि मनुष्य और उसका समाज कोई स्थिरांक नहीं है – हमेशा गतिशील है। यह गति यदि आगे की ओर नहीं होगी, तो पीछे की रपटीली ढलान की तरफ होगी। मनुष्य के इंसान बनने की संभावनाओं के जितने भी पुल हैं, यदि वे तोड़ दिए जायेंगे, तो उसका हैवान बनना तय है। उसे बर्बर बनाने की मुहिम भी जारी है।
युद्ध शास्त्र बताता है कि पराजित होकर पीछे की ओर भागने वाली सेनायें जिन पुलों से गुजरती हैं, उन्हें ध्वस्त करती जाती हैं। मौजूदा हुक्मरान भी कुछ इसी तरह का आचरण कर रहे हैं। ठीक यही वजह है कि नदी, नालों पर बने पुलों के गिरने के दोषियों की शिनाख्त करते हुए, उन्हें सजा दिलाने की मांग उठाते हुए, समाज को जोड़ने वाले पुलों को तोड़ने वालों की पहचान करना और उन्हें उनके इस अपराध के लिए दंडित करने के लिए भी उठना होगा।
अच्छी बात है कि जिन दिनों में ये हमले तेज हुए हैं, उन्हीं दिनों में इनके खिलाफ प्रतिरोध भी बढ़ा है।
*(आलेख : बादल सरोज)*
*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*