और अंतत नरेंद्र मोदी दुनिया के ऐसे प्रधानमंत्री भी बन गए, जिनकी विदेश नीति, वे जिस देश के प्रधानमंत्री हैं, खुद उस देश की विदेश नीति से सिर्फ अलहदा ही नहीं है, उसके विपरीत भी है। दक्षिण इजरायल पर 7 अक्टूबर को हुए हमास के अचानक हमले ने इस दुष्ट देश की अपराजेयता का आभासीय तिलिस्म जब चूर-चूर करके रख दिया, तब इजरायल के दत्तक अभिभावक अमरीका के साथ सबसे पहले उचक कर नरेंद्र मोदी चहके – ट्विटराये – थे और दिलो-जान के साथ इजरायल के साथ होने का एलान किया था । उन्होंने ट्वीट (इन दिनों ये मिस्टर मस्क की तर्ज पर X हो गए हैं ) किया था कि “इजरायल पर आतंकी हमलों से गहरा सदमा लगा है।” इसी के साथ यह भी एलान किया था कि “हम भारत के लोग मजबूती के साथ इजरायल के साथ खड़े हैं।” वे इस बात पर भी गदगदाए हुए थे कि हमले के फ़ौरन बाद इजरायल के प्रधानमन्त्री बेंजामिन नेतन्याहू ने स्वयं उनको फोन कर जानकारी दी थी। इसके लिए उन्होंने नेतन्याहू को धन्यवाद भी दिया। उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या नेतन्याहू ने ही उन्हें इस तरह का समर्थन देने को कहा था, या यह स्वयं उनके दिमाग में आया आईडिया था? शायद आगे कभी यह सच भी उजागर हो जाए।
बहरहाल पॉइंट ये है कि यह भारत की अब तक की स्वीकृत विदेश नीति नहीं है। यह सच्चाई मोदी के आँख मूंदकर नेतन्याहू को दिए गए समर्थन के 6 दिन बाद उन्हीं की सरकार के विदेश मंत्रालय के आधिकारिक बयान ने उजागर भी कर दी। भारत के विदेश मंत्रालय ने 13 अक्टूबर को दिए अपने आधिकारिक बयान में कहा कि “इस संबंध में (फिलिस्तीन के बारे में) हमारी नीति लम्बे समय से एक ही रही है। भारत ने हमेशा अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सीमाओं के साथ स्वतंत्र, संप्रभु और व्यवहार्य फिलिस्तीन राष्ट्र के वजूद का का समर्थन किया है, उसकी वकालत की है। शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत को ही एकमात्र रास्ता बताया है।” विदेश मंत्रालय का बयान, हालांकि जितना जरूरी था, उससे काफी कम था, मगर प्रधानमंत्री के बयान का लगभग साफ़ खंडन करने वाला था, उनके द्वारा फैलाए गए रायते को समेटने की कोशिश करने वाला था। मगर न तो इसके आने में पूरे 6 दिन लग जाना अनायास में हुई चूक है, ना ही प्रधानमंत्री मोदी का बयान किसी भावनात्मक उद्वेग या कथित रूप से हुई हिंसा से विचलित हुई गैरमौजूद संवेदनाओं का ही स्फोट है। यदि ऐसा कुछ होता, तो यही भावना पहले और बाद में गाजा पट्टी पर इजरायल की कारपेट बमबारी में बच्चों, महिलाओं सहित निरपराध फिलिस्तीनियों की हत्याओं, बिजली-पानी बंद कर देने जैसी दुनिया और उसके कानूनों को ठेंगा दिखाने वाली वहशियाना हरकतों के बाद भी जागनी थी। दुनिया के अनेक देशों – इजरायल बसाने वाले देशों सहित – द्वारा नेतन्याहू की कार्यवाही से अलग रहने, उसका विरोध तक करने के बाद एक ट्वीट इस पर भी आना चाहिए था। मगर नहीं आया, क्योंकि सब कुछ सुविचारित था, सब कुछ तय शुदा था, सब कुछ इस वक़्त साउथ ब्लाक में आधिपत्य जमाये बैठे सत्ता समूह के मन की बात के मुताबिक़ और उसकी निरन्तरता में था।
जिस इरादे से यह किया गया, वही हुआ भी। भाजपा की घोषित और संघ की अघोषित आईटी सैल ने तो जैसे इजरायल की तरफ से फिलिस्तीन के खिलाफ जंग ही छेड़ दी। मणिपुर पर सन्न, सूट्ट रहने वाली यह जहरीली बटालियन ऐसे मुस्तैद हो गयी, जैसे हमास ने हमला इजरायल पर नहीं, भारत पर बोला हो ; कि जैसे फिलिस्तीनी कोई ऐसे एलियन हों, जो मंगल ग्रह से आकर भारत की जमीन पर बस गए हों और उन्हें अपनी बताने लगे हों। गोदी मीडिया और उसके एंकर्स और एंकरानी पहली उड़ान से उड़कर उस तेल अबीब पहुँच गए, जिसके बारे में उन्होंने पूरी जिन्दगी में शायद ही कभी कुछ जाना या समझा हो। भरे पूरे अज्ञान के बाद भी इत्ती सावधानी जरूर बरती कि इजरायल ही गए, गाज़ा पट्टी जाने की हिम्मत नहीं दिखाई। आईटी सैल ने वही किया, जिसमे वे पारंगत हैं ; नकली और झूठे विडियो चलाये, किसी में बच्चे का सर कलम करते, तो किसी में सेक्स स्लेव्स को ले जाते वे फिलिस्तीनी दिखाए, जो खुद कोई 80 बरस से इस सबका शिकार हो रहे हैं। इतना ही नहीं, “फिलिस्तीन को धरती से खत्म करने” का वह युद्धघोष भी किया, जिसकी हिम्मत, कम से कम आज तक, खुद इजरायल की भी नहीं हुई है। जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, मध्यप्रदेश सहित उन प्रदेशों में तो, खुद इजरायल में जिसे हत्यारा और बेईमान शिरोमणि माना जाता है, उस नेतन्याहू के साथ गलबहियां करते हुए नरेंद्र मोदी के विराटाकार होर्डिंग्स भी लटका दिए गए। वैसे यह “प्रेम” एकतरफा नहीं कहा जा सकता। खबर है कि इजरायल के इनके सहोदर-समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू भी अपने चुनाव में साहेब की तस्वीर का इस्तेमाल करते रहते हैं।
संघी सोशल मीडिया के इस बेगानी बर्बादी में अब्दुल्ला दीवाना मार्का जूनून को देख ऑस्ट्रेलिया और दुनिया की दूसरी तथ्यान्वेषी इकाइयों ने सर्वे करके यह बता भी दिया कि इस संघी आईटी सैल की झुठल्ली पोस्ट्स की दुनिया भर में बहार है। इनकी मेहरबानी से जहरीली नफरती मुहिम के धंधे में भारत न केवल आत्मनिर्भर हो चुका है, बल्कि इस्लामोफोबिया फैलाने वाला असला मुहैया कराने के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक भी बन गया है। इन एजेंसियों के मुताबिक़ ट्वीट्स सहित सोशल मीडिया के ज्यादातर नफरती संदेशों का पता – आई पी एड्रेस – भी भारत है, अधिकाँश मामलों में वही समूह है, जो भाजपा और संघ की आईटी सैल से जुड़ा है और इनमें से अनेक को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फॉलो भी करते हैं। मतलब यह कि दावा विश्वगुरु होने का था, हो गए विषगुरु।
यह आचरण कितना आपराधिक और देशघाती है इसके लिए फिलिस्तीन के इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं है। हालांकि ऐसा भी किया जाना चाहिए, क्योंकि नकली आधार पर जानबूझकर पैदा किये गये असली विवाद की जड़ में जाकर ही उसे ठीक तरह से समझा सकता है। तभी जाना जा सकता है कि मसला इजरायल पर फिलिस्तीन (ध्यान रहे कि 7 अक्टूबर का हमला हमास ने किया है, जो फिलिस्तीन की जनता का प्रतिनिधि नहीं है) के हमले का नहीं है, बल्कि इजरायल, जो मानव सभ्यता के समूचे इतिहास में कभी देश रहा ही नही, उसके द्वारा कुछ हजार वर्ष से बसे बसाए देश फिलिस्तीन पर कब्जा करने का है ; कि यह यहूदी बनाम मुसलमान विवाद न कभी था, न आज है ; कि इजरायल भी यहूदियों के नहीं, अमरीका और उसके लगुये-भगुए चंद देशों द्वारा खड़े किये गए यहूदीवादियों के कब्जे में हैं ; कि धर्म के नाम पर देश नहीं बना करते, यह बात मानते हुए भी यह बड़ा सच है कि यहूदी धर्मानुयायी खुदा के जिस पहले पैगम्बर अब्राहम को अपना सब कुछ मानते हैं और जिनके वारिसों ने ही येरुशेलम की एक किलोमीटर से भी कम जमीन पर ईसाईयत और इस्लाम की स्थापना की, उन अब्राहम के बेटे याकूब के बेटे यहूदा के नाम पर यहूदी धर्म चला। उस यहूदी धर्म की विशेषता ही यह है कि वह यहूदियों के राष्ट्र में विश्वास नहीं रखता। इतना ही नहीं, वह सेना रखे जाने का तो निषेध ही करता है।
मगर मोदी या उनके विचार-गिरोह को इस सबसे कोई मतलब नहीं। उन्हें इस सबसे भी मतलब नहीं कि भारत का अवाम और उसकी सरकार हमेशा से फिलिस्तीन की जनता, उसके अपने संप्रभु देश के अधिकार की मुखर पक्षधर रही है। इजरायल को आक्रान्ता और फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा करने वाला मानती रही है। महात्मा गांधी से लेकर इनके अटल बिहारी बाजपेयी तक हरेक ने फिलिस्तीन के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की है। इतिहास में दर्ज है कि जब दुनिया में कोई भी देश फिलिस्तीन को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था, भारत पहला गैर अरब देश था, जिसने उसे मान्यता दी। उसके नुमाइंदे – फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी एल ओ) को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनवाने की लड़ाई लड़ी भी, जीती भी। इजरायल को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने की अमरीका और उसके सहयोगियों की कोशिशों का हमेशा विरोध किया। इजरायल के साथ रिश्ते बनाने में भी भारत दुनिया के आख़िरी देशों में था — वह आख़िरी गैर मुस्लिम देश था, जिसने इजरायल को मान्यता दी। इसके बाद भी उससे दूरियां ही बनाए रखी। मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं, जो इजरायल गए, हालांकि अब तक की सर्वसम्मत भारतीय विदेश नीति के तारतम्य में उन्हें भी इसी के साथ अगले ही दिन फिलिस्तीन और रामल्ला भी जाना पड़ा। जिसके पल्लू से बंध जाने की फुर्ती भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिखाई है, उन्हें और उनकी चीखा ब्रिगेड को याद रखना चाहिए कि इजरायल दुनिया में सबसे अलग-थलग देश था, आज भी है। दुनिया के सभी देशों का साझा संगठन – संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) – अब तक इजरायल के खिलाफ कोई 800 प्रस्ताव पारित कर चुका है ; इनमें फिलिस्तीन जमीन पर हमले, जबरिया यहूदी बसाहटें बसाना बंद करने से लेकर उनकी हथियाई जमीन खाली करने तक के प्रस्ताव है। किसी भी प्रस्ताव पर एक अमरीका को छोड़ कर किसी भी और देश ने इजरायल का साथ नहीं दिया। अभी हाल के दिनों में भारत ने – मोदी की अगुआई वाली सरकार के कार्यकाल वाले भारत ने – तटस्थ होना शुरू किया है, साथ देने की हिम्मत अभी भी नहीं हुयी है।
यह अलगाव आज भी बरकरार है, क्योंकि दुनिया की निगाहों में इजरायल आज भी फिलिस्तीन की जमीन पर जबरिया बनाया गया देश है। हमास के हमलों के बाद अमरीकी दबाव में जब यूरोपीय यूनियन ने फिलिस्तीन की सहायता बंद करने का एलान किया, तो वह भी कुछ घंटों से ज्यादा नहीं चल पाया। ब्रिटेन, फ़्रांस आदि देशों के विरोध के बाद यूरोपीय यूनियन को भी अपना प्रस्ताव वापस लेना और फिलिस्तीनी अवाम को मदद जारी रखने की घोषणा करना पड़ी। इतना ही नही, फिलिस्तीन का बिजली-पानी बंद करने की भी मुखालफत की गयी — ऐसा करने के लिए इजरायल की आलोचना करने के लिए भी विवश होना पड़ा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 6 अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार गाजा पट्टी पर हो रहे इजरायली हमलों में मारे जा चुके हैं, (भारत के गोदी मीडिया के पत्रकारों-पत्रकाराओं के शुभेच्छु फ़िक्र न करें, वे सलामत रहेंगे), इनमें से एक मीडिया राक्षस रायटर्स के वीडियोग्राफर इस्साम अब्दुल्ला भी हैं। इनकी मौत को रायटर्स – जो फिलिस्तीनियों का हिताकांक्षी नहीं ही है – ने हत्या बताया है। मतलब यह कि जो इस हिंसा को अमरीका और यूरोप आदि के लिए मनोरंजन की तरह प्रस्तुत करने में लगे हैं, वे भी इजरायली जघन्यता के साथ नहीं है। और तो और, जेरुसलेम टाइम्स सहित इजरायल के अपने अखबार भी, इजरायल में हुई मौतों की भयावह संख्या के बावजूद नेतन्याहू को ही कोस रहे हैं। उसके द्वारा की जा रही हिंसा और हमलों की भर्त्सना कर रहे हैं। अभी हाल में, हमास के हमलों के बाद, इजरायली अखबारों ने अपने सर्वे में पाया और छापा कि 90 प्रतिशत इजरायली मानते हैं कि इस सबके लिए उनका भ्रष्ट और तानाशाह पीएम नेतन्याहू जिम्मेदार है। बहरहाल भले और कोई हो या न हो, भले इजरायल की जनता भी उसके साथ न हो, मोदी नेतन्याहू और यहूदीवादियों के झुंड के साथ हैं, उनकी भाजपा और संघ है। क्यों?
इनके अतीत के हिसाब से भी यह काफी अजीब बात है। मोदी और भाजपा का मात-पिता संगठन आरएसएस दुनिया का एकमात्र ऐसा संगठन है, जो यहूदियों के साथ वर्णनातीत नृशंसता करने वाले हिटलर को अपना आदर्श और आराध्य दोनों मानता है। इसके कुलगुरु सावरकर और एकमात्र चिरगुरु लिखापढ़ी में हिटलर स्तुति कर चुके हैं ; नस्लीय शुद्धिकरण करने के मामले में, यहूदियों का सफाया करने के उसके उदाहरण को अनुकरणीय बता चुके हैं। ध्वज प्रणाम, गणवेश, संगठन सिद्धांत और जघन्यता भी उसी से लेकर आये हैं। आज वे उसी हिटलर की अमानुषिकता के शिकार हुए यहूदियों के साथ दिख रहे हैं। यह विरोधाभास नहीं है : इनका ईमान धरम न हिन्दू है, न सनातनी। एक मशहूर शेर के रदीफ़ और काफिये में कहें तो “इनके ईमान के डी एन ए में ही है बेहूदी, हिटलर के साथ नाज़ी — इजरायल के संग यहूदी !!” (यहाँ यहूदीवादी पढ़ा जाए।)
इस डी एन ए का नाम है बर्बरता। यह तब हिटलर में थी, तो वे नाजीवादी थे, आज इजरायल के शासकों में हैं, इसलिए वे नाजीवादी के साथ-साथ यहूदीवादियों के — यहूदियों के नहीं — के साथ खड़े हैं। इस तरह खड़े होना उनके एजेंडे – मुस्लिम विरोध – से भी मेल खाता है, इसलिए और भी ज्यादा जोर-शोर से खड़े हैं। इनकी, अब तक जारी उच्च तीव्रता मुहिम से तो लगता है कि जैसे नवम्बर में होने जा रहे विधान सभा चुनाव भी हमास और नेतन्याहू के नाम पर ही लड़ने वाले हैं। संगीत की भाषा में कहें, तो आई टी सैल और भाजपाई मीडिया बेस दे रहे हैं, जिसके आधार पर खुद प्रधानमंत्री मोदी सहित सभी भाजपाई सुर उठाकर उसे आलाप और सप्तम स्वर तक ले जाने की जुगत में भिड़े हैं। फासिस्टों की भारतीय नस्ल का यही स्वभाव है, यही चरित्र है।
ठीक यही कारण है कि वे हमास और फिलिस्तीन को गड्डमड्ड कर रहे हैं। यह बात जानबूझकर छुपा रहे हैं कि हमास एक ऐसा आतंकवादी संगठन है, जिसे खुद इजरायल ने पी एल ओ (फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन) के खिलाफ खाद-पानी देकर तैयार किया है। यासिर अराफात के नेतृत्व में बना फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन पी एल ओ एक उदारवादी धर्मनिरपेक्ष संगठन था। उनके संगठन में ईसाई सहित अनेक धर्मों के लोग शामिल थे। पूरी दुनिया में इसकी अपार लोकप्रियता थी। मोदी तब – स्वयं उनके अनुसार – भिक्षाटन करते थे – जब अराफात और पी एल ओ भारत के घनिष्ठ मित्र थे। इत्ते ज्यादा घनिष्ठ कि खुद संकट में होने और पाकिस्तान सहित सभी देशों के समर्थन के तलबगार होने के बावजूद कश्मीर के सवाल पर हमेशा भारत के साथ खड़े होते थे। 1970 के दशक में इज़राइल ने अराफात और उदारवादी फिलिस्तीन नेताओं के विरोध में कुछ आतंकी तैयार किये, उन्हें हथियार और पैसे दिए। इजरायल द्वारा पैदा किये गए इन्हीं आतंकियों ने एक राजनीतिक तंजीम के रूप में हमास की औपचारिक स्थापना 1987 में की। धीरे-धीरे हमास ने फिलिस्तीन के उदारवादी नेतृत्व को किनारे कर ख़ुद फिलिस्तीनी आंदोलन को अपने हाथ में ले लिया। 7 अक्टूबर को यही हमास भस्मासुर मुद्रा में था। यहूदीवादियों और इन उत्पातियों के ट्यूनिंग के बीच संयोग को दुनिया की प्रेस ने भी दर्ज किया है कि जब-जब नेतन्याहू की कुर्सी डावांडोल होती है, तब-तब हमास उरूज पर आता है। यह दबी छुपी बात नहीं है। इजरायल की जनता भी इसे जानती हैं। इज़राइल की सेना के पूर्व जनरल यित्जाक सेजेव ने इसे – हमास को खड़ा करने की करतूत को – इज़राइल की ऐतिहासिक ग़लती बताया है।
इसलिए यह अत्यंत प्राथमिक और जरूरी काम और देश हितैषी दायित्व हो जाता है कि इन विधानसभा चुनावों में इस गिरोह को निर्णायक रूप से पराजित किया जाए। इतने निर्णायक अंतर के साथ कि वे खरीद-फरोख्त कर कर्नाटक या मध्यप्रदेश दोहराने की सोच भी न सके। यह आवश्यक है किन्तु पर्याप्त नहीं ; इन्हें हटाना भर काफी नहीं होगा। इसके साथ, इसके बाद उस जहर और अज्ञान, झूठ और अर्धसत्य का भी निराकरण करना होगा, जो इन्होने फैलाया है। बिना हिचके नारा उठाना होगा कि फिलिस्तीन की लड़ाई दुनिया भर की लड़ाई है, हमारी अपनी लड़ाई है।
✒️आलेख : बादल सरोज(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)