जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, मोदी सरकार अविश्वास प्रस्ताव की परीक्षा में न सिर्फ बच निकली, बल्कि उसके फौरन बाद उसके सुप्रीमो नरेंद्र मोदी, देश भर में इसका ढोल पीटने में जुट गए हैं कि उनकी जबर्दस्त जीत हुई है। अविश्वास प्रस्ताव पर फैसले के अगले ही दिन, बंगाल में भाजपा के पंचायती राज परिषद के जमावड़े में अपने संबोधन की शुरूआत ही मोदी ने संसद में विपक्ष के ”अविश्वास को भी हराने” और नेगेटिविटी फैलाने के सिलसिले का ”करारा जवाब देने” की शेखी मारने के साथ की। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी इतने भर से संतुष्ट नहीं हो सकते थे। उन्होंने इस पर गाल बजाना भी जरूरी समझा कि कैसे विपक्षी बहस के ”बीच में से ही भाग गए, सदन छोड़कर चले गए” और यह भी कि ”वो अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग से डर गए थे। वो लोग नहीं चाहते थे कि वोटिंग हो। क्योंकि वोटिंग होती, तो घमंडिया गठबंधन की पोल खुल जाती…” आदि, आदि। और प्रधानमंत्री मोदी आने वाले दिनों में बार-बार अपनी इस ”जीत” का डंका खुद ही नहीं पीटें, तो ही अचरज की बात होगी।
इसके साथ इतना और जोड़ लें कि अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के अपने करीब सवा दो घंटा लंबे जवाब में, प्रधानमंत्री मोदी ने भले ही ऐसे प्रस्ताव पर बहस में प्रधानमंत्री के सबसे लंबे भाषण का रिकार्ड बनाने के साथ ही, सबसे अनर्गल भाषण का भी रिकार्ड बनाया है, उस भाषण में ऐसा बहुत कुछ था, जिसे विपक्ष के सवालों का न सही, पर विपक्षी पार्टियों के लिए जरूर ”करारा जवाब” के तौर पर भी पेश किया जा सकता है। प्रधानमंत्री अपने भाषण में हर बॉल पर ‘चौका-छक्का जड़ने’ के लिए खुद ही अपनी पीठ भी ठोक चुके थे। इसी सब के सहारे नरेंद्र मोदी की ”सदा अविजित” छवि पर और परतें चढ़ाने में लगे गोदी टिप्पणीकारों के इस तरह के दावों में क्या जरा सी भी सचाई है कि विपक्षी गठबंधन, इंडिया की अविश्वास प्रस्ताव के जरिए घेरने की कोशिशों को मोदी ने कामयाबी के साथ अपने लिए मौके में बदल लिया है, कि अविश्वास प्रस्ताव लाना विपक्ष का सैल्फ गोल साबित हुआ है, वगैरह।
बेशक, अविश्वास प्रस्ताव की इस पूरी प्रक्रिया का कुल मिलाकर जनता के बीच प्रभाव के अर्थ में क्या नतीजा निकलता है, यह संसद में इस मामले में जो कुछ हुआ है उससे बढ़कर, इस पर निर्भर करता है कि जनता के बीच कौन, क्या संदेश, कहां तक ले जा सकेगा। फिर भी संसद में जो कुछ हुआ, उसकी एक वस्तुगत सचाई भी है, जिसे आसानी से मिटाया, दबाया या छुपाया नहीं जा सकता है। इस सचाई का बेशक, यह एक महत्वपूर्ण पहलू है कि अविश्वास प्रस्ताव के बावजूद, मोदी सरकार बनी हुई है यानी संसदीय प्रक्रिया के रूप में अविश्वास प्रस्ताव की हार हो गयी हैै। लेकिन, यह नतीजे का ऐसा पहलू है, जो इस मुकाबले के शुरू होने से पहले से सब को पता था। चूंकि इस नतीजे के लिहाज से तो शुरू से यह मुकाबला था ही नहीं, इसीलिए हैरानी की बात नहीं है कि विपक्ष अंत तक गिनती से नतीजा निकाले जाने के लिए नहीं रुका। इस आधार पर मोदीशाही के जीत के दावे करने को हास्यास्पद ही कहा जाएगा। यह दूसरी बात है कि प्रधानमंत्री इस पहलू से अपनी जीत की इस हास्यास्पदता को, विपक्षी डर गए, विपक्षी भाग गए, आदि के अपने दावों से ढांपने की कोशिश तो फिर भी करते रह ही सकते हैं।
तब प्रधानमंत्री के विपक्ष के अविश्वास को हराने और नेगेटिविटी को करारा जवाब देने, आदि का आधार क्या है? विपक्ष की ओर से शुरू से ही यह स्पष्ट कर दिया गया था कि उसने प्रधानमंत्री को मणिपुर के गंभीर हालात पर बोलने तथा सवालों के जवाब देने के लिए मजबूर करने के आखिरी उपाय के तौर पर अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लिया था। इससे पहले, प्रधानमंत्री को संसद में आकर मणिपुर पर बोलने के लिए मजबूर करने की विपक्ष की सारी कोशिशें, जो मानसून सत्र के पहले दिन से ही शुरू हो गयी थीं, विफल हो चुकी थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद सत्र के शुरू होने से ऐन पहले, पहली बार मणिपुर की विभीषिका पर बोलने के लिए जब अपना मुंह खोला था, तब तक मणिपुर को जलते हुए अस्सी दिन हो चुके थे। इसके बावजूद, प्रधानमंत्री ने जो बहुत ही सीमित-सा और अति-संक्षिप्त वक्तव्य दिया भी, वह संसद के दायरे से बाहर दिया, जिस पर उनसे किन्हीं सवालों के उत्तर देने की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती थी।
इसके बाद, अविश्वास प्रस्ताव के चलते ही, जो कि घोषित रूप से मणिपुर के हालात पर केंद्रित कर पेश किया गया था, प्रधानमंत्री ने मणिपुर पर अपना मुंह खोलना मंजूर किया, लेकिन तब तक मणिपुर की विभीषिका को चलते सौ दिन पूरे हो चुके थे। इसे विपक्ष की और जाहिर है कि मणिपुर की जनता की ओर से विपक्ष की जीत कहना ही होगा कि प्रधानमंत्री को, मणिपुर के हालात पर कम से कम चिंता जतानी पड़ी और वहां सभी से शांति की अपील भी करनी पड़ी। याद रहे कि बीस दिन पहले, मानसून सत्र की शुरूआत से ऐन पहले, प्रधानमंत्री ने जब एक वीडियो के जरिए वाइरल हुई दो कुकी महिलाओं के साथ दरिंदगी की घटना के सार्वजनिक चर्चा में आने की पृष्ठभूमि में पहली बार मणिपुर के घटनाक्रम पर अपना मुंह खोला था, उन्हें न तो कुल मिलाकर हालात पर चिंता जताना जरूरी लगा था और न लोगों से शांति की अपील करना।
इसके बावजूद, क्या नरेंद्र मोदी एंड कंपनी ने अंतत: अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में अपने जवाबों से और खासतौर पर मणिपुर के संबंध में अपने जवाबों से विपक्ष के अविश्वास को ”हरा” दिया? इसका जवाब एक जोरदार “नहीं” ही हो सकता है। इस ‘नहीं’ के अनेक वस्तुगत कारण हैं। इसका सबसे स्थूल तथा आसानी से देखा जा सकने वाला कारण तो इसी से जुड़ा हुआ है कि मणिपुर पर केंद्रित बहस में भी, अपने रिकार्ड तोड़ सवा दो घंटे के भाषण में प्रधानमंत्री का जिक्र करने तक पहुंचते-पहुंचते, करीब सौ मिनट लग गए। और करीब सौ मिनट बाद, विषय पर पहुंचने के बाद भी प्रधानमंत्री, मुश्किल से आठ मिनट इस विषय पर बने रह पाए। और इस आठ मिनट में भी प्रधानमंंत्री ने यह कहने के अलावा कि उनके हमजोली तथा गृहमंत्री, अमित शाह इसी बहस के क्रम में एक दिन पहले अपने लंबे भाषण में, अपेक्षाकृत विस्तार से मणिपुर के संबंध मेें सरकार का नजरिया रख चुके थे; प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के ही उत्तर-पूर्व का सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाली सरकार होने के अति-सामान्यीकृत दावे किए और एक दिन मणिपुर में शांति लौटने से लेकर, एक दिन उत्तर-पूर्व के सारी दुनिया का बहुत ही महत्वपूर्ण केंद्र बन जाने की और भी सामान्यीकृत बयान बाजी की।
वास्तव में नरेंद्र मोदी का इस सामान्यीकृत बयानबाजी से भी ज्यादा जोर, दो अनुचित तथा निराधार, किंतु उनके हिसाब से ”करारा जवाब” देने के लिए जरूरी दावों पर रहा। पहला यह कि विपक्ष, जो मणिपुर पर बहस के घोषित उद्देश्य से अविश्वास प्रस्ताव लाया था, वास्तव में मणिपुर पर बहस नहीं चाहता था और अविश्वास प्रस्ताव की आड़ में मणिपुर पर बहस सेे बचने की कोशिश कर रहा था। दूसरा, संक्षेप में यह कि मणिपुर समेत पूर्वोत्तर में जो कुछ भी हुआ है, मोदी राज में हुआ है और वहां जितनी भी समस्याएं हैं, वे पिछली कांग्रेसी सरकारों की पैदा की हुई या छोड़ी हुई समस्याएं हैं। और यह भी कि मोदी सरकार के रूप में देश में पहली बार ऐसी सरकार आयी है, जिसे उत्तर-पूर्व की चिंता है, जबकि पहले की सरकारें तो उत्तर-पूर्व की दुश्मन थीं। इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री ने, जी हां स्वयं देश के प्रधानमंत्री ने ”इन (कांग्रेस) की वायु सेना” कहकर, 1966 में मिजोरम में बागियों के खिलाफ वायु सेना के प्रयोग की और इसी प्रकार, 1984 के जून में अकाल तख्त पर काबिज भिंडरांवालां की हथियारबंद फौज के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की, ‘अपनी जनता के साथ दुश्मनों जैसा सलूक’ कहकर सिर्फ इसलिए भर्त्सना कर दी कि इस तरह तब प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी पर और अब उनकी पार्टी कांग्रेस पर, निशाना साधा जा सकता था! हैरानी की बात नहीं है कि बगावत के खिलाफ इन कार्रवाइयों का विरोध, किसी शांतिवादी नेता द्वारा नहीं किया जा रहा था, बल्कि ऐसे नेता द्वारा किया जा रहा था जिसके अपने राज का, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर छात्र कार्यकर्ताओं तक, अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों के खिलाफ अधिकतम दमनकारी शक्ति का प्रयोग करने का रिकार्ड रहा है। और इस राज में जम्मू-कश्मीर में जो कुछ किया जाता रहा है, उसका तो खैर जिक्र ही करना बेकार है।
इस अविश्वास प्रस्ताव प्रकरण में विपक्ष की सबसे बड़ी जीत यह है कि वह, मणिपुर के मामले में मोदी सरकार की आपराधिक अगंभीरता को और उसके दावों के झूठ को भी बेनकाब करने में कामयाब रहा है। इस सिलसिले में सिर्फ दो-तीन प्रकरणों जिक्र करना काफी होगा। पहला, मणिपुर के दो लोकसभा सदस्यों में से, एक को भी मणिपुर पर केंद्रित इस बहस में बोलने नहीं दिया गया, क्योंकि सच सामने आ जाने का डर था। दो में एक लोकसभा सदस्य, जो केंद्र सरकार में मंत्री भी है, भाजपा से ही हैं और इम्फाल में उग्र भीड़ ने उनका घर भी जला दिया था। बात में एनडीए की एक सहयोगी पार्टी के मणिपुर से लोकसभा सदस्य ने प्रेस को बताया भी कि वह बहस में बोलना चाहता था, लेकिन उसे खासतौर पर भाजपा की ओर से बोलने से रोका गया था। उधर राज्यसभा में, पड़ोसी मिजोरम के एकमात्र सांसद, एनडीए के सहयोगी दल के वनलालथेना ने जब अपने भाषण में इसकी शिकायत की कि गृहमंत्री अमित शाह, मणिपुर के आदिवासियों को विदेशी म्यांमारी क्यों बता रहे हैं, उनके सार्वजनिक बयान के अनुसार उनका माइक बंद कर दिया गया। बाद में, मणिपुर के दस कुकी विधायकों ने चिठ्ठी लिखकर, गृहमंत्री अमित शाह द्वारा कुकियों को विदेशी करार दिए जाने पर कड़ा विरोध जताया गया है।
यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि अपनी विभाजनकारी बहुसंख्यकवादी राजनीति में कैद मोदी सरकार, देश की एकता को कमजोर कर रही है। इस सचाई को सबके सामने लाना, इस अविश्वास प्रस्ताव प्रकरण में विपक्षी मंच, इंडिया की सबसे बड़ी जीत है। बेशक, उसकी एक और जीत, पहले जनतंत्रविरोधी दिल्ली विधेयक और फिर अविश्वास प्रस्ताव पर, मजबूती से अपनी एकता बनाए रखना भी है। इसीलिए तो मोदीशाही की बौखलाहट बढ़ रही है।
✒️आलेख : राजेंद्र शर्मा(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)