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गांधी की भी जय, गोडसे की भी जय!

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बलिदान दिवस शब्द सुनाई देना करीब-करीब बंद ही हो गया है। कम-से-कम, 30 जनवरी के विज्ञापनों से तो बलिदान शब्द गायब ही हो चुका है। फिर भी दसियों साल की आदत। सुबह-सुबह गांधी की सुध लेने पहुंच ही गया। कैसे हैं — के जवाब में, गांधी ने मुश्किल से सिर उठाकर देखा। पर चेहरे पर परिचय की मुस्कुराहट तक दिखाई नहीं दी, फिर इस पर हर साल वाली ठिठोली का तो सवाल ही कहां उठता था कि, कहते हैं बलिदान दिवस और पूछते हैं कि कैसे हैं? साफ था कि गांधी दुखी और उदास थे। खुले आकाश के नीचे हम देर तक चुपचाप बैठे रहे। न मैंने कुछ पूछा, न उन्होंने कुछ कहा। पर अंत में उन्हें शायद कोई जरूरी काम याद आ गया और बोले – पूछो, जो पूछना है। वैसे कोई छापेगा तो है नहीं। अपना भी टाइम खोटी क्यों करना और मेरा भी टाइम क्यों जाया करना। मुझे तो लगता है कि यह सिलसिला ही अब बंद कर देना चाहिए। अब तो मुगल गार्डन भी अमृत उद्यान हो गया। बलिदान दिवस की जगह, 30 जनवरी की जगह कोई और दिवस क्यों नहीं?

दुखी बुढ़ऊ के दर्द को और कुरेदने से बचने की कोशिश की। रटी-रटायी मांग दोहरायी – 75वें बलिदान दिवस पर राष्ट्र के नाम कोई संदेश। साथ में जोड़ दिया – याद रहे, 75 का नाम बदलकर अब अमृत कर दिया गया है। सो 75 साल पूरे होने के मौके पर, विशेष अमृत संदेश होना चाहिए। बुढ़ऊ कुछ चिढ़ कर बोले – हां विशेष संदेश है और उसमें अमृत टपकता नजर आएगा। पहले भी कहा है, एक बार फिर दोहराता हूं – भाइयो, मुझे बख्श दो! पचहत्तर साल याद रख लिया, बहुत हुआ। अब मुझे छुट्टी दो। राष्ट्रपिता-राष्ट्रपिता कहने से भी और बलिदान दिवस को याद करने से भी। पचहत्तर साल में जब पुरानी वाली आजादी को भुला दिया और 2014 वाली नयी आजादी का सिस्टम चला दिया, फिर 75 साल में मेरी भी छुट्टी क्यों नहीं। यही संदेश है कि इसे मेरा आख़िरी संदेश होने दो – मुझे कम से कम इस बलिदान से अब तो छुट्टी दे दो!

दुखी बुढ़ऊ के इस विदाई टाइप संदेश से मैं कुछ कन्फ्यूज हो गया। क्या यह एक दुखी दिल की बड़बड़ थी? क्या यह नया इतिहास लिखे जाने के दौर के राष्ट्रपिता का नया संदेश था? बाद वाला अर्थ ही मुझे सुविधाजनक लगा, सो वही मान लिया। सोचा शायद उन तक खबर नहीं पहुंची होगी। उन्हें बताने लगा कि कैसे नये भारत के नये राष्ट्रपिता के रूप में उनके रिलीवर का मामला तो फिलहाल फंस गया लगता है। सावरकर को नहला-धुलाकर, बालों में तेल चुपडक़र, कंघी कर के और तिलक वगैरह लगाकर, नया राष्ट्रपिता अप्वाइंट करने की तैयारी की जा रही थी, पर अप्वाइंटमेंट लेटर जारी होने की नौबत आती, उससे पहले ही, मराठियों ने ही यह कहकर भांजी मार दी कि नये इंडिया में पुराने जमाने वाला राष्ट्रपिता कैसे चलेगा। नये इंडिया का नया राष्ट्रपिता, नरेंद्र मोदी के सिवा दूसरा कोई कैसे हो सकता है? सो नये-पुराने के झगड़े में बेचारे सावरकर का अप्वाइंटमेंट तो अटक गया। फिर भी आप की डिमांड पर भी सरकार ने और संघ परिवार समेत आपके बहुत से शुभचिंतकों ने कुछ सोचा है, कुछ करना शुरू किया है। उन्होंने गांधी की जय के साथ-साथ, गोडसे की भी जय-जय करना शुरू कर दिया है, ताकि आप को कम से कम अकेले जयकार का बोझ नहीं उठाना पड़े। आपके साथ भी कोई तो जयकार शेयर करने वाला रहे।

दुखी बुढ़ऊ पता नहीं कितना समझे और कितना नहीं, एक ही सवाल उनके जुबान पर आया–इससे क्या होगा? मैंने समझाने की कोशिश की — कम से कम बलिदान दिवस से तो आपकी जान छूट जाएगी। जब आप की भी जै-जै होगी और गोडसे की भी जै-जै होगी, तो फिर कौन, किसका हत्यारा कहलाएगा और कौन, किसके हाथों से शहीद हुआ माना जाएगा। यानी आप की 30 जनवरी वाली प्रॉब्लेम खत्म। नहीं होगा, तो बाद में स्वच्छता दिवस का नाम भी बदलकर कोई और अमृत दिवस कर देंगे और 30 जनवरी से आप की छुट्टी को पक्का कर देंगे।

पर बुढ़ऊ को 30 जनवरी से छुट्टी से भी संतोष कहां होने वाला था। कहने लगे — बहुत खूब। गांधी की भी जय और गोडसे की भी जय। दोनों की जय, एक साथ! शेर और बकरी, एक घाट पर पानी पीएं। यही तो मेरा रामराज्य है। मैं इससे बढक़र और क्या चाह सकता हूं? बस जरा समझाकर बताइए कि नये इंडिया में आप लोगों ने यह चमत्कार किया, तो किया कैसे? शेर को ही शाकाहारी बना दिया या बकरी को ही हाथी बना दिया? मैंने कहा — शेर को शाकाहारी बनाकर या बकरी को हाथी बनाकर, एक घाट पर पानी तो कोई भी पिला देगा। इसमें नये भारत वाली नयी आजादी के मोदी जी के राज की खासियत क्या हुई? चमत्कार तो तभी न माना जाएगा, जब बकरी, बकरी ही रहे और शेर, शेर ही रहे, फिर भी दोनों हमें एक घाट पर पानी पीते दिखाई दें। ऐसा ही असली चमत्कार हो रहा है।

बुढ़ऊ की आंखें फैल गयीं। बोले, जरा खुलासा कर के बताएं। मैंने समझाया कि इतना मुश्किल भी नहीं है। बस पहले, सब गांधी की जय करते थे। गोडसे की जय करने वालों को इसका मौका ही नहीं मिलता था। गोडसे की बंदूक सब को दिखाई गयी, पर गोडसे की देशभक्ति हमेशा छुपाई गयी। झूठा इतिहास लिखकर गोडसे को हत्यारा, पहला आतंकवादी और न जाने क्या-क्या नहीं बनाया गया। उनकी देशभक्ति की जयकार कोई करता भी तो कैसे? पर अब और नहीं। अब सच्चा इतिहास लिखा जा रहा है। नाटक लिखकर, फिल्म बनाकर, मॉब लिंचिंग करने वालों को माला पहना कर, गोडसे की देशभक्ति को खोजा और सारी दुनिया को दिखाया जा रहा है। सो नया इंडिया, गोडसे की जै-जै कर रहा है। फिर भी चूंकि देश में डेमोक्रेसी है और मोदी जी ने इंडिया को डेमोक्रेसी की विश्व मम्मी मनवाने की ठान ली है, इसलिए नये इंडिया में पुराने इंडिया वालों को गांधी की जै-जै करने की भी छूट है। बल्कि गांधी की जै-जै पर पाबंदी लगाना तो दूर, खुद मोदी जी विदेश में जब जाते हैं, तो गांधी के नाम का ही जैकारा लगाते हैं। यानी गांधी भी खुश और गोडसे भी खुश। और भागवत जी भी खुश।

बुढ़ऊ उठते हुए बोले, बाकी की तो नहीं जानता, पर मैं इसमें खुश नहीं हूं। मुझे अपने नाम की जय नहीं चाहिए, न अकेले और न किसी से शेयरिंग में। चलते-चलते बोले – असगर मियां से कहना कि बकरी के पास जाकर देख लें। बकरी जिंदा तो है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बकरी का पुतला भर देखकर, उन्हें राम राज्य का धोखा हो गया हो। तभी गोडसे जी ने धांय-धांय कर के तीन गोलियां दाग दीं और 30 जनवरी का रिचुअल पूरा कर दिया।

✒️व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)मो:-9818097260

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